Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 246
________________ स्था का पोका प हि षि [भाररेणु के पार्शनप्रत्यक्ष की भापत्ति] यदि यह कहे कि "भाषय के स्पार्शमप्रत्यक्ष का प्रभाव आभित के स्पार्शनमायक्ष का प्रतिबाधक होता है, माता प्रसरेणुरूप भानय का स्पार्शन न होने से उसके स्पर्श का भी स्पाशन नहीं हो सकता, इसलिये प्रसरेणु के स्पर्श को उपभूत मानने पर भी उसके पार्शनम्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती" तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स. रेणुरूप भाप का सामान प्रत्यक्ष फयों नहीं होता। इसके उत्तर में यही कहना होगा कि अभूतस्पर्श का मभाव उसके प्रत्यक्ष का प्रतिबन्धक है. अता प्रसरेणु में अभूत. रूपाभाषका प्रतिबन्धक की समा उपपन्न करने के लिये इसके मार्ग को अनुभूत मानना ही उचित है । पयोकि यदि उसके स्पर्श को अद्भूत मामा आयगा तो उसके मान्य है। अपवा सह मी कल्पना की जा सकती है कि बृहदन-रम में नाव नहीं रहता, 'उस में चक्षुष्ट्य न होने पर उसके द्वारा चद्धान्तिकाय न हो सकने से दूरस्थ द्रव्य के पाशुप को अनापत्ति' की संका नहीं हो सकतो, स्वतंनिस्वास्वपयोध्यातियोमिकल्यानपतरसम्बन्धसे चच विशिष्टसभिकर्ष को कारण मान लेने से नूरस्प के चाचष की उपरान की पा सकती है। पर्व-चक्षु-रक्षिम और बाल श्रमान आलोक के संयोग से यादव - की उत्पत्ति नहीं होनी किन्तु मार पो हुये अन्य अनुदभुतावमार भालोकमणी के सापy- के योग से ना चटारभि की अपत्ति होती है. यह कल्पमा भोक नई है, क्योंकि बाहर अननुभूतकापभान आलोक कणों का प्रसार मानने में गौरव है। पर्वतमकार से वृहद् चक्षु-रश्मि की उत्पनि गानने पर उसका दृश्यय के पृष्ठ भाग में, एवं हष्ठा के.पृष्ठभाग में स्थित एन्य में भी प्रयोग का सम्मान होने से सम्भुन्यस्यद्रव्य के पृष्टभाग तथा टए। के पृष्ठभागस्थनम के भी चाक्षुष के आपत्ति होगो'-यह शङ्का भी उचित नहीं है, क्योंकि भापत्या में पनुःसन्निकर और रक्षा का सम्मुखता दोनों कारण है, सम्मानस्श ठन्य के पृष्ठभाग में तथा सटा के पृष्ठभागस्य पदार्थ में हा को सम्मुखता न होने से उनके चाक्षुष की आपत्ति नहीं दो मकनी, जे. ट्रम्य जिम ५) के सम्मुग्ण होता है उसका अग्रभाग ई। रा के माद माना जाता हैं, उसका पृष्ठभाग सम्मुत्र नहीं माना माता, क्योंकि पृष्ठभाग में सम्मुग्लीनाथ का व्यवहार नहीं होता | 'EET की सम्भुप्ता को चाक्षुप के प्रांत कारण मानने पर वक्षःसन्निको को कारण मानना व्यर्थ है-यह मौका नहीं की जा सकती, क्योंकि दृष्या के सम्मुख पर्याप्त निर्या दूर देश में स्थित इब्ध के चाक्षुपापत्ति के परिवागर्थ मानक की कारण मानन्दा आवद्यक । इस सन्दर्भ में यह प्यान देने योग्य बात है कि सम्मुगीन होने का अर्थ मुम्य की दिशा में अस्पत होना मान नहीं है क्योकि यह अर्थ मानने पर सम्मुखस्थ इन्म के पृष्टभाग की भी सम्मुखीनना अनिवार्य हो जायगी, अतः सम्मुखीनता का अर्थ है 'इदस्य सम्माबीनम्, इदं न इस यवहार का निवासक स्वरूपसम्बम्भनिशेष, नो मुख दिशा में अवस्थित उसी इन्य में होता है जिसमें उस बहार आनुभषिक हैं। अपग यह भी कल्पना की जा सकती है कि पा और रश के सम्मुलस्थ म के अयभाग के यम जी आलोक होता है उसके साथ मनः-शि के संयोग से उतने ही भाय में बद वास्नि की उत्पत्ति होती है, अता दृष्टा के टस्थ द्रव्प के साथ एवं ट्वा के समय नन्य के गुप्तधाग के साथ नक्षु का सन्निकर्ष न होने से उनके चाक्षुषप्रत्यक्ष की आपत्ति सम्भावित ही नही हो सकती । इस फल्पना की मान्य करने पर दृष्टा के माममुख्य को चासत्र के प्रति कारण मानने * अवश्यकता नहीं होती।

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