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वच
सिद्धि
अजीव है। शुभअशुभ कर्मका आगमनका द्वाररूप आस्रव है। जीव अर कर्मके प्रदेश एकक्षेत्रावगाह संबंधरूप बंध है।। आस्रवका रुकनां सो संवर है । एकदेशकर्मका क्षय सो निर्जरा है। समस्तकर्मका वियोग (क्षय ) सो मोक्ष है इनिका विस्ताररूप व्याख्यान आगें होयगा । तिनिमैं सर्वफलका आत्मा आश्रय है, तातै सूत्रमैं आदिविर्षे जीव कह्या । ताके
उपकारी अजीव है, तातें ताकै लगता ही अजीव कह्या । जीव अजीव दोऊनिके संबंधते आस्रव है, तातै ताकै अनंतर सार्थ आस्रव कह्या । आस्रवपूर्वक बंध हो है, तातै ताकै लगता बंध कह्या संवर होतें बंधका अभाव हो है, तातै ताकै लगता
निका टी काही संवर कह्या । संदरपूर्वक निर्जरा होय है, तातै ताकै लगता निर्जरा कह्या । अंतकेविर्षे मोक्षकी प्राप्ति है, तात अंतमैं अ. 38| मोक्ष कह्या । ऐसें इनिका पाठका अनुक्रम है ॥
इहां कोई कहै- पुण्यपापका ग्रहण यामैं करणां योग्य था, अन्य आचार्यनि- नव पदार्थ कहे हैं । ताकू कहियेपुण्यपाप आस्त्रवबंधमें गर्भित हैं, ताक् तिनिका ग्रहण न किया । फेरि कहै, जो ऐसें है तो आस्रवादिक भी जीवअजीवविक् गर्भित हैं, दोय ही तत्त्व कहने थे। ताका समाधान- जो, इहां प्रयोजनविशेष है सोही कहिये है। इहां प्रकरण मोक्षका है, तातें मोक्ष तो अवश्य कह्या ही चाहिये । बहुरि मोक्ष हैं सो संसारपूर्वक है। संसारके प्रधान कारण आस्त्रब बंध हैं, सो कहनां ही । बहुरि मोक्षके प्रधानहेतु संवरनिर्जरा हैं, ते भी कहना ही । यातै प्रधानकारण कार्यके अपेक्षा इनिकू जुदे कहे । सामान्यमैं अंतर्भूत है तोऊ विशेषका कहना प्रयोजन आश्रय है। जैसे सेनाविर्षे क्षत्रिय भेले होय तब कह ' सर्व आये तथा फलाणे बडे सुभट हैं ते भी आये । ऐसे इहां भी जाननां ॥ बहुरि कोई तर्क करै, सूत्रवि तत्वशब्द तौ भाववाची एकवचन नपुंसकलिंग है । बहुरि जीवादिक द्रव्यवाचक बहुवचन पुरुषलिंग धऱ्या सो यहु कैसे ? ताका उत्तरजो, द्रव्य भाव तो अभेदरूप है, तातै दोष नाही । बहुरि लिंग संख्या तत्त्वशब्द भाववाची है, तहां एकवचन ही होय है, तथा नपुंसकलिंगी है, तातें अपनी लिंगसंख्याकौं छोडै नांही, तातें दोष नाही । ऐसे ही आदिसूत्रविष जाननां ॥
इहां विशेप कहिये हैं-- मोक्षमार्गके प्रकरणमें श्रद्धानके विषय सात ही तत्त्व हैं । अन्यवादी केई तत्त्व एक ही कहै हैं । केई प्रकृतिपुरुष दोय कही इनिके पचीस भेद कहै हैं । केई द्रव्यगुणादि सप्त पदार्थ कहै । केई पृथ्वी आदि पंच तत्त्व कहै हैं । केई प्रमाणप्रमेय आदि पोडश पदार्थ कहै हैं । तथा एकद्रव्य अनंतपर्यात्मक है । ऐसें अनंत द्रव्य हैं ॥ तहां आचार्य मध्यमप्रस्थान विचारी कहै हैं । संक्षेप कहै तौ विशेष ज्ञानी ही समझे । विस्तार कहै तो कहांताई कहै । तातें अवश्य श्रद्धानका विषय थे ते कहे । केई कहै हैं, एक जीव ही तत्त्वार्थ है; सो अयुक्त है । पर जीवकी सिद्धि वचन" कराई है। वचन है सो अजीव है । जो वचनकं भी जीव कहिये, तो याकै स्वसंवेदन