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- - सम्यग्दर्शन दुःख मिट जाता है। सम्यग्दृष्टि को ऐसा विचार होता है कि सर्वज्ञ ने जैसा वस्तु का स्वरूप जाना है, वैसा ही निरन्तर परिणमित होता है और वही होता है, उसमें इष्ट-अनिष्ट मानकर दुःखी-सुखी होना वह निष्फल है, ऐसे विचार से दुःख दूर होता है वह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है। इससे सम्यक्त्व का ध्यान करना कहा है।
सम्यक्त्व के ध्यान की महिमा सम्म जो झायइ समाइट्ठी हवेइ सो जीवो। सम्मतपरिणदो उण खवेई दुट्ट कम्माणि ॥ ८७ ॥ सम्यक्त्वं यः ध्यायति सम्यग्दृष्टिः भवति सः जीवः । सम्यक्त्वपरिणतः पुनः क्षपयति दुष्टाष्ट कर्माणि ॥ ८७ ।।
अर्थ:-जो जीव सम्यक्त्व की आराधना करता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है, और वह सम्यक्त्वरूप परिणमित होने से, जो दुष्ट आठ कर्म है उनका क्षय करता है।
भावार्थ:-सम्यक्त्व का ध्यान ऐसा है कि यदि पहले सम्यक्त्व न हुआ हो, तथापि उसके स्वरूप को जानकर उसका ध्यान करे तो वह सम्यग्दृष्टि हो जाता है। और सम्यक्त्व प्राप्त होने पर जीव के परिणाम ऐसे होते हैं कि संसारके कारणरूप जो दुष्ट आठ कर्म हैं उनका क्षय होता है, सम्यक्त्व होते ही कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा होती जाती है। अनुक्रम से मुनि हो उस समय चारित्र और शुक्लध्यान उसके सहकारी होने पर सर्व कर्मों का नाश होता है।
- सम्यक्त्व का माहात्म्य किं पहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले । सिज्झिहहि जे भविया तं जाणइ सम्म माहप्पं ॥८॥ किं बहुना भणतेन ये सिद्धाः नरवराः गते काले । सेत्स्यति वेऽपि भव्याः तजानीत सम्यक्त्व माहात्म्यम् ।।८८॥