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---* सम्यग्दर्शन
थोड़ा बहुत बना ही रहता है किन्तु मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत जो आप्त आगम आदि पदार्थ हैं उनका यथार्थ ज्ञान सम्यग्टषिको ही होता है तथा सर्वज्ञेय का ज्ञान केवली भगवानके ही होता है, यह जानना चाहिये । जिनमत की आज्ञा
कोई कहता है कि सर्वज्ञकी सत्ताका निश्चय हमले नहीं हुआ तो क्या हुआ ? यह देव तो सच्चे हैं, इनकी पूजन आदि करना निष्फल थोड़े ही जाता है ?
उत्तर - जो तुम्हारी किंचित् मंद कषायरूप परिणति होगी तो. पुण्य बन्ध तो होगा किन्तु जिनमतमें तो देवके दर्शन से आत्मदर्शनरूप फल होना कहा है वह तो नियमसे सर्वज्ञकी सत्ता जाननेते ही होगा प्रकार से नहीं; यही श्री प्रवचनसारमें कहा है ।
और फिर तुम लौकिक कार्योंमें तो इतने चतुर हो कि वस्तुकी 'सत्ता आदि का निश्चय किये बिना सर्वथा प्रवृत्ति नहीं करते और यहाँ तुम । सत्ताका निश्चय भी न करके सयाने अनध्यवसायी ( बिना निर्णय के ) होकर प्रवृत्ति करते हो यह बड़ा आश्चर्य है ! श्री श्लोकवार्तिकमे कहा है कि- जिसके सत्ता का निश्चय नहीं हुआ, परीक्षकको उसकी स्तुति आदि कैसे करना उचित है ? इसलिये तुम सर्व कार्यों से पहले अपने ज्ञान में, सर्वज्ञकी सत्ताको सिद्ध करो, यही धर्मका मूल है और यही जिनाम्नाय है ।
आत्मकल्याणके अभिलाषियोंसे अनुरोध
जिन्हें आत्मकल्याण करना है उन्हें पहले जिनवचन के आगमका सेवन, युक्तिका अवलम्बन, परंपरा गुरुका उपदेश, तथा स्वानुभव इत्यादि के द्वारा प्रमाण नय निक्षेप आदि उपायले वचनकी सत्यताका अपने ज्ञान में निर्णय र म्यान हुये सत्यरूप साधनके वलसे उत्पन्न तो अनुमान है उसले सर्वज्ञकी सत्ताको सिद्ध करके उसका श्रद्धान ज्ञान-दर्शन पूजन भक्ति और स्तोत्र नमस्कारादि करना चाहिये ।