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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
किसीको यह शंका हो सकती है कि अभी तोअरिहन्त नहीं है तब फिर अरिहन्तको जाननेकी बात किसलिये की गई है ? उनके समाधान के लिये कहते है कि-यहाँ अरिहन्त की उपस्थिति की बात नहीं है कितु अरिहन्तका स्वरूप जाननेकी बात है। अरिहन्तकी साक्षात् उपस्थिति हो तभी उसका स्वरूप जाना जा सकता है-ऐसी वात नहीं है। अमुक क्षेत्र की अपेक्षासे अभी अरिहन्त नहीं हैं किन्तु उनका अस्तित्व अन्यत्र महाविदेह क्षेत्र इत्यादिमें तो अभी भी है। अरिहन्त भगवान साक्षात् अपने सन्मुख विराजमान हों तो भी उनका स्वरूप ज्ञानके द्वारा निश्चित होता है, वहाँ अरिहन्त तो आत्मा है उनका द्रव्य, गुण अथवा पर्याय दृष्टिगत नहीं होता तथापि ज्ञानके द्वारा उनके स्वरूप का निर्णय होता है, और यदि वे दूर हों तो भी ज्ञानके द्वारा ही उनका निर्णय अवश्य होता है। जब वे साक्षात् विराजमान होते हैं तब भी अरिहन्तका शरीर दिखाई देता है। क्या वह शरीर अरिहन्तका द्रव्य, गुण अथवा पर्याय है ? क्या दिव्यध्वनि अरिहन्त का द्रव्य, गुण अथवा पर्याय है ? नहीं। यह सब तो आत्मासे भिन्न है। चैतन्यस्वरूप आत्मा द्रव्य उसके ज्ञान दर्शनादिक गुण और उसकी केवलज्ञानादि पर्याय अरिहन्त है। यदि उस द्रव्य, गुण, पर्यायको यथार्थतया पहचान लिया जाय तो अरिहन्तके स्वरूपको जान लिया कहलायगा । साक्षात् अरिहन्त प्रभुके समक्ष बैठकर उनकी स्तुति करे परन्तु यदि उनके द्रव्य-गुण, पर्यायके स्वरूपको न समझे तो वह अरिहन्त के स्वरूपकी स्तुति नही कहलायगी। Viny
क्षेत्र की अपेक्षासे निकटमें अरिहन्तकी उपस्थिति हो या न हो, इसके साथ कोई संबंध नहीं है किन्तु अपने ज्ञानमें उनके स्वरूपका निर्णय है या नहीं, इसीके साथ सबंध है। क्षेत्रापेक्षासे निकटमें ही अरिहन्त भगवान विराजमान हों परन्तु उस समय यदि ज्ञानके द्वारा स्वयं उनके स्वरूप का निर्णय न करे तो उस जीवको आत्मा ज्ञात नही हो सकता और उसके लिये तो अरिहन्त बहुत दूर है। और वर्तमानमें क्षेत्रकी अपेक्षासे अरिहन्त भगवान निकट नहीं है तथापि यदि अपने ज्ञानके द्वारा अभी भी अरिहन्तके