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— सम्यग्दर्शन
और इसलिये मोह निराश्रय होकर नष्ट होनाता है और इसप्रकार अरिहन्तको जानने वाले जीवके सम्यग्दर्शन होनाता है ।
वस्तुका स्वरूप जैसा हो वैसा माने तो वस्तु स्वरूप और मान्यतादोनोंके एक होने पर सम्यक् श्रद्धा और सम्यग्ज्ञान होता है । वस्तुका सवा स्वरूप क्या है यह जाननेके लिये अरिहन्तको जाननेकी आवश्यकता है, क्योंकि अरिहन्त भगवान द्रव्य, गुण, पर्याय स्वरूपसे सम्पूर्ण शुद्ध हैं। जैसे अरिहन्त हैं वैसा ही जव तक यह आत्मा न हो तब तक उसकी पर्यायमें दोष है — अशुद्धता है ।
अरिहन्त जैसी अवस्था तव होती है जब पहले अरिहन्त परसे अपने आत्माका शुद्ध स्वरूप निश्चित करे । उस शुद्ध स्वरूपमें एकाग्रता करके, भेदको तोड़कर, अभेद स्वरूपका आश्रय करके पराश्रय बुद्धिका नाश होता है, मोह दूर होता है और क्षायक सम्यक्त्व प्रगट होता है । क्षायक सम्यक्त्वके प्रगट होने पर आंशिक अरिहन्त जैसी दशा प्रगट होती है । और अरिहन्त होनेके लिये प्रारंभिक उपाय सम्यग्दर्शन ही है । अभेद स्वभावकी प्रतीतिके द्वारा सम्यग्दर्शन होनेके बाद जैसे २ उस स्वभावमें एकाग्रता बढ़ती जाती है वैसे २ राग दूर हो जाता है, और ज्यों ज्यों राग कम होता जाता है त्यों त्यों व्रत- महात्रतादिका पालन होता रहता है; किन्तु अभेद स्वभावकी प्रतीतिके बिना कभी भी व्रत या महाव्रतादि नहीं होते । अपने आत्माका आश्रय लिये विना आत्माके आश्रयसे प्रगट होनेवाली निर्मल दशा ( श्रावक दशा-मुनि दशा आदि ) नहीं हो सकती । और निर्मल दशाके प्रगट हुये विनां धर्मका एक भी अंग प्रगट नहीं हो सकता । अरिहन्तकी पहिचान होने पर अपनी पहिचान होजाती है, और अपनी पहिचान होने पर मोहका क्षय होजाता है । तात्पर्य यह है कि अरिहन्त की सच्ची पहिचान मोह क्षयका उपाय हैं ।
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"स्वभावकी निःशंकता
अव आचार्यदेव अपनी निःशकताकी साक्षीपूर्वक कहते हैं कि