Book Title: Samyag Darshan
Author(s): Kanjiswami
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 219
________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला २०७ जीव उन्हें नहीं पहचानता और सर्वज्ञ देवके संबंधों ( अर्थात् संपूर्ण सच्चा ज्ञान किसे प्राप्त हुआ है इस संबंधमें) मूर्खता धारण करता है और इसप्रकार सच्चे देवके संबंधमें भी अपनी विचार शक्तिका दिवाला पीटता है, यही देवमूढ़ता है। (देवका अर्थ पुण्यके फलसे प्राप्त स्वर्गके देव नहीं; किंतु ज्ञानकी दिव्य शक्ति धारण करनेवाले सर्वज्ञदेव है। गुरुमूढ़ता-बीमार आदमी इस सम्बन्धमें खूब विचार करता है और परिश्रम करके यह ढूढ निकालता है कि किस डाक्टरकी दवा लेनेसे रोग दूर होगा। लोग कुम्हारके पास दो टकेकी हँडिया लेने जाने हैं तो उसको भी खूब ठोक बजाकर परीक्षा कर लेते हैं इसीप्रकार और भी अनेक सांसारिक कार्योंमें परीक्षा की जाती है, कितु यहाँपर आत्माके अज्ञानका नाश करनेके लिये और दुःखको दूर करनेके लिये कौन निमित्त (गुरु) हो सकता है ? इसकी परीक्षाके द्वारा निर्णय करनेमें विचार शक्तिको नहीं लगाता और जैसा पिताजी ने कहा है अथवा कुल परम्पराले जैसा चला आरहा है उसीका अन्धानुशरण करके दौड़ लगाता है, यही गुरुमूढता है। __ इसप्रकार जीव या तो विचार शक्तिका उपयोग नहीं करता और यदि उपयोग करने जाता है तो उपरोक्त लोकमूढता, देवमूढता और गुरुमूढता से तीन प्रकारसे लुट जाता है । कुगुरु कहते है कि दान दोगे तो धर्म होगा, किन्तु भले आदमी ! ऐसा तो गांवके भंगी भी कहा करते हैं कि भाई साहब ! एक बीड़ी दोगे तो धर्म होगा। इसमें कुगुरु ने कौनसी अपूर्व बात कहदी और फिर शीलका उपदेश तो माँ बाप भी देते हैं तो वे भी धर्म गुरु कहलायेंगे। स्कूलों और पाठशालाओंमें भी अहिंसा सत्य और ब्रह्मचर्यादि पालन करनेको कहा जाता है तो वहाँके अध्यापक भी धर्म गुरु कहलायेंगे और वहॉकी पुस्तकें धर्म शास्त्र कहलायेंगी किन्तु ऐसा नहीं होता । धर्मका स्वरूप अपूर्व है।

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