Book Title: Samyag Darshan
Author(s): Kanjiswami
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 264
________________ २५२ -* सम्यग्दर्शन परके कारण मेरे परिणम नहीं होते, मैं अपनेसे ही कषायकी मन्दता करता हूँ, परके कारण या कर्मके कारण मेरी पर्यायमें रागादि नहीं होते-ऐसी पर्यायकी स्वतंत्रताकी श्रद्धा सो व्यवहार-श्रद्धा है । मिथ्यात्वके रसको मन्द करके पर्यायकी स्वतंत्रताकी श्रद्धा करनेकी जिसकी शक्ति नहीं है उस जीवके सम्यग्दर्शन नहीं होता। यदि इस समय पर्यायकी स्वतंत्रता माने तो मिथ्यात्व मन्द होता है। और उसको व्यवहार-सम्यक्त्व कहते हैं। मात्र कषायकी मन्दताके द्वारा मिथ्यात्त्रकी मन्दता होती है उसे व्यवहार-सम्यक्त्व नहीं कहते, क्योंकि श्रद्धा और चारित्रकी पर्याय भिन्न-भिन्न है। जो जीव जड़की क्रिया अथवा कर्मको लेकर श्रात्माके परिणाम मानते हैं उन्होंने परिणामोंकी स्वतंत्रता भी नहीं मानी है। यदि वे शुभभाव करें तो भी उनके मिथ्यात्वकी मन्दता यथार्थ रीतिसे नहीं होती, और वे द्रव्यलिंगीसे भी छोटे हैं। जिनके अशुभ परिणाम होते हैं ऐसे जीवोंकी अभी वात नहीं हैं; किन्तु यहाँ तो मन्दकपाय वाले जीवोंकी वात है, जो जीव अपने परिणामोंकी स्वतंत्रताको नहीं जानते उनके मन्दकपाय होनेपर भी व्यवहारश्रद्धा तक नहीं होती। , जो जीव पर्यायकी स्वतंत्रता मानते हुए भी पर्यायवुद्धिमें अटके हैं, वे जीव भी मिथ्यादृष्टि हैं। जो अंशतः स्वतंत्र है ऐसी व्यवहारश्रद्धा करनेकी शक्ति कपायकी मन्दतामें नहीं है। मैं अपने परिणामोंमें अटका हूँ इसीसे विकार होता है- ऐसी अंशतः स्वतंत्रता माने तो स्वयं उसका निपेव करे। किंतु यदि ऐसा माने कि पर विकार कराता है, तो स्वयं कैसे उसका निपेध कर सकता है ? निमित्त या संयोगसे मेरे परिणाम नहीं होते, इसप्रकार अंशतः स्वतंत्रता करके त्रिकाल स्वभावमें उस अंशका निषेध करना सो ही निश्चयश्रद्धासम्यग्दर्शन है। कपायकी मन्दता वह उस समयकी पर्यायका स्वतंत्र कार्य है,

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