Book Title: Samyag Darshan
Author(s): Kanjiswami
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 267
________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला २५५ अपनी पर्याय न माने, किन्तु ऐसा माने कि यह स्वतंत्र है, तथापि पर्यायमें जो विकार होता है उसे स्वरूप मानकर अटक जाये तो वह भी मिथ्यात्व है। जो यह मानते है कि परद्रव्योंकी क्रियासे अपने परिणाम होते हैं, उनके मन्दकषाय होनेपर भी मिथ्यात्त्रका रस यथार्थतया मन्द नहीं पड़ता, तथा शास्त्रज्ञान भी सच्चा नहीं होता। मेरी पर्याय परद्रव्यसे नहीं होती किन्तु स्वतंत्र मुझसे ही होती है-इस प्रकार पर्यायकी स्वतंत्रताको माने तब मिथ्यात्वका रस मन्द होता है, और सच्चा शास्त्रज्ञान भी होता है, उसे व्यवहार-श्रद्धा-ज्ञान कहते हैं, वहाँ कपायकी मंदता होती ही है। किन्तु अभी पर्यायदृष्टि है इसलिये सम्यग्दर्शन नहीं होता। जो त्रैकालिक चैतन्यस्वभाव है वह अंशमात्र (पर्याय जितना) नहीं है, स्वभावसे परिपूर्ण और विभावसे रहित है, ऐसी श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है, वही अपूर्व पुरुषार्थ, एवं मोक्षमार्ग है । मन्द कषायका पुरुषार्थ अपूर्व नहीं है, वह तो जीवने अनन्तबार किया है, इसलिये उसे सीखना नहीं पड़ता क्योंकि वह कोई नवीन नही है। किन्तु जीवने सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका उपाय कभी भी नहीं किया इसलिये वही अपूर्व है और वही कल्याणका कारण है। जीवोंने श्रद्धा और ज्ञानका व्यवहार तो अनन्तबार सुधारा है, तथापि निश्चयश्रद्धा, ज्ञानके अभावके कारण उनका हित नहीं हुआ। अधिकांश लोग धर्मके नामसे बाह्य क्रियाकांडमें ही अटक गये हैं, और उनके व्यवहारश्रद्धा, ज्ञान भी यथार्थ नहीं होता, इसलिये यहां यथार्थ समझाया है कि व्रत प्रतिमा अथवा दयादानादिके शुभ परिणामोंसे व्यवहारश्रद्धा-ज्ञान नहीं होता वे उसके उपाय नहीं हैं। व्यवहारश्रद्धा-ज्ञान कैसे होता है तथा सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान कैसे प्रगट होता है वह यहां पर समभाया है।

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