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* सम्यग्दर्शन (२१) निःशंकता जिसका वीर्य भवके अंतकी निःसंदेह श्रद्धा प्रवर्तित नहीं होता और अभी भी भवकी शंकामें प्रवर्तमान है उसके वीर्यमें अनन्तों भव करने की सामर्थ्य मौजूद है।
भगवानने कहा है कि-'तेरे स्वभावमें भव नहीं है' यदि तुझे भवकी शंका हो गई तो तूने भगवानकी वाणीको अथवा अपने भव रहित स्वभावोंको माना ही नहीं है । जिसका वीर्य अभी भवं रहित स्वभावकी निःसंदेह श्रद्धामें प्रवर्तित नहीं हो सकता जिसके अभी यह शंका मौजूद है कि मैं भव्य हूँ या अभव्य हूँ उसका वीर्य वीतरागकी वाणीको कैसे निर्णय कर सकेगा और वीतरागकी वाणीके निर्णयके विना उसे अपने स्वभावकी पहचान कैसे होगी। इसलिये पहले भव रहित स्वभावकी निःशकता की लाओ।
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भवपार होनेका उपाय शेष अचेतन सर्व छ, जीव सचेतन सार; जाणी जेने मुनिवरो, शीघ्र लहे भवपार ॥३६॥ जो शुद्धातम अनुभवो, नजी सकल व्यवहार; जिनप्रभु अमज भणे, शीघ्र थशो भवपार ।।३७।।
[योगसार] जीवके अतिरिक्त जितने पदार्थ हैं वे सब अचेतन हैं, A चेतन तो मात्र जीव ही है और वही सारभूत है, उसे जानकर परम मुनिवरो शीघ्र ही भवपारको प्राप्त होते हैं।
श्री जिनेन्द्रदेव कहते हैं कि हे जीव । सर्व व्यवहारको छोड़कर यदि तू निर्मल आत्माको जानेगा तो शीघ्र ही भवपार र हो जायेगा।