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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला (२२) बिना धर्मात्मा धर्म नहीं रहता
-न धर्मो धार्मिकैर्विनाधर्मात्माओंके बिना धर्म नहीं होता। जिसे धर्मरुचि होती है उसे धर्मात्माके प्रति रुचि होती है। जिसे धर्मात्माओंके प्रति रुचि नहीं होती उने धर्मरुचि नहीं होती। जिसे धर्मात्माके प्रति रुचि और प्रेम नहीं है उसे धर्मरुचि और प्रेम नहीं है। और जिसे धर्मरुचि नहीं है उसे धर्मी (आपका) आत्माके प्रति ही रुचि नहीं है । धर्मी के प्रति रुचि न हो और धर्मके प्रति रुचि हो, यह हो ही नहीं सकता। क्योंकि धर्म तो स्वभाव है, वह धर्मी के बिना नही होता । जिसे धर्मके प्रति रुचि होती है उसे किसी धर्मात्मा पर अरुचि, अप्रेम या क्रोध नहीं हो सकता। जिसे धर्मात्मा प्यारा नहीं उसे धर्म भी प्यारा नहीं हो सकता । और जिसे धर्म प्यारा नहीं है वह मिथ्यादृष्टि है। जो धर्मात्माका तिरस्कार करता है वह धर्मका ही तिरस्कार करता है । क्योंकि धर्म और धर्मी पृथक् नहीं है।
___ स्वामी समन्तभद्राचार्यने रत्नकरण्ड श्रावकाचारके २६ वें श्लोकमें कहा है किः-न धर्मो धार्मिकैर्विना।" इसमें दुतरफा बात कही गई है, एक तो यह. कि-जिसे अपने निर्मल शुद्ध स्वरूपकी अरुचि है वह मिथ्यादृष्टि है और दूसरा यह कि-जिसे धर्मस्थानों या धर्मी जीवोंके प्रति अरुचि है वह मिथ्यादृष्टि है।
___ यदि इसी बातको दूसरे रूपमें विचार करें तो यों कहा जा सकता है कि जिले धर्म रुचि है उसे आत्मरुचि है, और वह अन्यत्र जहाँ जहाँ दूसरेमें धर्म देखता है वहाँ वहाँ उसे प्रमोद उत्पन्न होता है। जिसे धर्म रुचि होगई उसे धर्म स्वभावी आत्माकी और धर्मात्माओंकी रुचि होती ही है। जिले अतरंगमें धर्मी जीवोंके प्रति किचित् मात्र भी अरुचि हुई उसे धर्मकी भी अरुचि होगी ही। उसे आत्मरुचि नहीं हो सकती।
जिते आत्माका धर्म रुच गया उसे, जहाँ जहाँ वह धर्म देखता है वहाँ वहॉ प्रमोद और आदरभाव. उत्पन्न हुये बिना नहीं रहता। धर्मस्वरूप