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श्री भगवानकुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला कौतूहल तो कर ! यदि दुनियांकी अनुकूलता या प्रतिकूलतामे रुकेगा तो अपने चैतन्य भगवानको तू नहीं देख सकेगा। इसलिए दुनियांका लक्ष छोड़कर और उससे पृथक् होकर एकबार महान् कष्टसे भी तत्त्वका कौतूहली हो।
____जिस प्रकार सूत और नेतरका मेल नहीं बैठता, उसीप्रकार जिसे श्रात्माकी पहिचान करना हो उसका और जगतका मेल नहीं बैठता। सम्यकदृष्टिरूप सूत और मिथ्यादृष्टिरूप नेतरका मेल नहीं खाता । आचार्यदेव कहते हैं कि बन्धु । तूं चौरासीके कुएँ में पड़ा है, उसमें से पार होनेके लिये चाहे जितने परीषह या उपसर्ग आयें, मरण जितने कष्ट आयें, तथापि उनकी दरकार छोड़कर पुण्य-पापरूप विकार भावोंका दो घड़ी पड़ौसी होतो तुझे चैतन्य दल पृथक मालूम होगा। 'शरीरादि तथा शुभाशुभ भावयह सब मुझसे भिन्न हैं और मैं इनसे पृथक् हूँ, पड़ौसी हूँ'-इसप्रकार एकबार पड़ौसी होकर आत्माका अनुभव कर।
सच्ची समझ करके निकटस्थ पदार्थोंसे मैं पृथक, ज्ञाता-दृष्टा हूँ, शरीर, वाणी, मन वे सब बाह्य नाटक हैं, उन्हें नाटक स्वरूपसे देख । तू उनका साक्षी है । स्वाभाविक अंतरज्योतिसे ज्ञानभूमिकाकी सत्तामें यह सब जो ज्ञात होता है वह मैं नहीं हूँ, परन्तु उसका ज्ञाता जितना हूँ-ऐसा उसे जान तो सही । और उसे जानकर उसमें लीन तो हो ! आत्मामें श्रद्धा, ज्ञान और लीनता प्रगट होते हैं उनका आश्चर्य लाकर एकबार पड़ौसी हो।
जैसे-मुसलमान और वणिकका घर पास पास हो तो वणिक उसका पड़ौसी होकर रहता है, लेकिन वह मुसलमानके घरको अपना नहीं मानता, उसी प्रकार हे भव्य ! तू भी चैतन्य स्वभावमें स्थिर होकर परपदारंका दो घड़ी पड़ौसी हो; परसे भिन्न आत्माका अनुभव कर!
शरीर, मन, वाणीकी क्रिया तथा पुण्य-पापके परिणाम वे सब पर हैं। विपरीत पुरुषार्थ द्वारा परका स्वामित्व माना है, विकारी भावोंकी ओर तेरा बाह्य का लक्ष है। वह सब छोड़कर स्वभावमें श्रद्धा, ज्ञान और