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________________ ६६ श्री भगवानकुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला कौतूहल तो कर ! यदि दुनियांकी अनुकूलता या प्रतिकूलतामे रुकेगा तो अपने चैतन्य भगवानको तू नहीं देख सकेगा। इसलिए दुनियांका लक्ष छोड़कर और उससे पृथक् होकर एकबार महान् कष्टसे भी तत्त्वका कौतूहली हो। ____जिस प्रकार सूत और नेतरका मेल नहीं बैठता, उसीप्रकार जिसे श्रात्माकी पहिचान करना हो उसका और जगतका मेल नहीं बैठता। सम्यकदृष्टिरूप सूत और मिथ्यादृष्टिरूप नेतरका मेल नहीं खाता । आचार्यदेव कहते हैं कि बन्धु । तूं चौरासीके कुएँ में पड़ा है, उसमें से पार होनेके लिये चाहे जितने परीषह या उपसर्ग आयें, मरण जितने कष्ट आयें, तथापि उनकी दरकार छोड़कर पुण्य-पापरूप विकार भावोंका दो घड़ी पड़ौसी होतो तुझे चैतन्य दल पृथक मालूम होगा। 'शरीरादि तथा शुभाशुभ भावयह सब मुझसे भिन्न हैं और मैं इनसे पृथक् हूँ, पड़ौसी हूँ'-इसप्रकार एकबार पड़ौसी होकर आत्माका अनुभव कर। सच्ची समझ करके निकटस्थ पदार्थोंसे मैं पृथक, ज्ञाता-दृष्टा हूँ, शरीर, वाणी, मन वे सब बाह्य नाटक हैं, उन्हें नाटक स्वरूपसे देख । तू उनका साक्षी है । स्वाभाविक अंतरज्योतिसे ज्ञानभूमिकाकी सत्तामें यह सब जो ज्ञात होता है वह मैं नहीं हूँ, परन्तु उसका ज्ञाता जितना हूँ-ऐसा उसे जान तो सही । और उसे जानकर उसमें लीन तो हो ! आत्मामें श्रद्धा, ज्ञान और लीनता प्रगट होते हैं उनका आश्चर्य लाकर एकबार पड़ौसी हो। जैसे-मुसलमान और वणिकका घर पास पास हो तो वणिक उसका पड़ौसी होकर रहता है, लेकिन वह मुसलमानके घरको अपना नहीं मानता, उसी प्रकार हे भव्य ! तू भी चैतन्य स्वभावमें स्थिर होकर परपदारंका दो घड़ी पड़ौसी हो; परसे भिन्न आत्माका अनुभव कर! शरीर, मन, वाणीकी क्रिया तथा पुण्य-पापके परिणाम वे सब पर हैं। विपरीत पुरुषार्थ द्वारा परका स्वामित्व माना है, विकारी भावोंकी ओर तेरा बाह्य का लक्ष है। वह सब छोड़कर स्वभावमें श्रद्धा, ज्ञान और
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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