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________________ १०० -- सम्यग्दर्शन लीनता करके एक अंतर्मुहूर्त अर्थात् दो घड़ी पृथक् होकर चैतन्यमूर्ति आत्माको पृथक् देख ! चैतन्यकी विलासरूप मौजको किंचित् पृथक् होकर देख ! उस मौजको अंतरमें देखनेसे शरीरादिके मोहको तू तुरन्त ही छोड़ सकेगा । झगिति' अर्थात् तुरन्त छोड़ सकेगा। यह बात सरल है, क्योंकि तेरे स्वभाव की है। केवलज्ञान लक्ष्मीको स्वरूपसत्ता भूमिमें स्थित होकर देख ! तो परके साथके मोहको तुरन्त छोड़ सकेगा। - तीन काल तीनलोककी प्रतिकूलताके समूह एक साथ आकर सम्मुख खड़े रहें, तथापि मात्र ज्ञाता रूपसे रहकर वह सव सहन करने की शक्ति आत्माके ज्ञायक स्वभावकी एक समयकी पर्यायमें विद्यमान है। शरीरादिसे भिन्नरूप आत्माको जाना है उसे इस परीपहोंके समूह किंचित् मात्र असर नहीं कर सकते अर्थात् चैतन्य अपने व्यापारसे किंचित् मात्र नहीं डिगता। । जिस प्रकार किसी जीवित राजकुमारको-जिसका शरीर अति कोमल हो-जमशेदपुर-टाटानगरकी अग्निकी भट्टीमें झोंक दिया जाये तो उसे जो दुःख होगा उससे अनंत'गुना दुःख पहले नरक में है, और पहले की अपेक्षा दूसरे, तीसरे आदि सात नरकोंमें एक-एकसे अनंत गुना दुःख है, ऐसे अनंत दुःखोंकी प्रतिकूलताकी वेदनामें पड़े हुए, घोर पाप करके वहां गये हुए, तीत्र वेदनाके गंजमें पड़े होनेपर भी किसी समय कोई जीव ऐमा विचार कर सकते हैं कि अरे रे ! ऐसी वेदना ! ऐसी पीड़ा ! ऐसे विचार को बदलकर स्वसन्मुख वेग होने पर सम्यग्दर्शन हो जाता है। वहाँ सत्समागम नहीं है, परन्तु पूर्व में एकवार सत्समागम किया था, सत् का श्रवण किया था और वर्तमान सम्यक् विचार के यलमे सातवें नरककी महा तीन पीड़ामें पड़ा होनेपर भी पीड़ा का लक्ष चूककर सम्यकदर्शन होता है, मात्माका सच्चा वेदन होता है । मानवे नरक
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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