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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
८१ पहिले द्रव्य गुण पर्यायका स्वरूप बताया है। अरिहन्तके द्रव्य गुण पर्यायको नानने वाला जीव अपने द्रव्य गुण पर्यायमय आत्माको जान लेता है-यह बात अब यहाँ कही जाती है।
“सर्वतः विशुद्ध भगवान अरिहन्तमें ( अरिहन्तके स्वरूपको ध्यानमें रखकर ) जीव तीनों प्रकारके समयको (द्रव्य गुण पर्यायमय निज आत्मा को) अपने मनके द्वारा जान लेता है।" [गाथा ८० की टीका ]
अरिहन्त भगवान का स्वरूप सर्वतः विशुद्ध है अर्थात् वे द्रव्य से गुण मे और पर्यायसे सम्पूर्ण शुद्ध हैं इसलिये द्रव्य गुण पर्यायसे उनके स्वरूपको जानने पर उस जीवके ख्यालमें यह आ जाता है कि अपना स्वरूप द्रव्यसे, गुणसे, पर्यायसे कैसा है ।
इस आत्माका और अरिहन्तका स्वरूप परमार्थतः समान है, इसलिए जो अरिहन्तके स्वरूपको जानता है वह अपने स्वरूपको जानता है और जो अपने स्वरूपको जानता है उसके मोहका क्षय हो जाता है।
सम्यक्त्व सन्मुख दशा जिसने अपने ज्ञानके द्वारा अरिहन्त के द्रव्य गुण पर्यायको लक्ष्यमें लिया है उस जीवको अरिहन्तका विचार करने पर परमार्थ से अपना ही विचार आता है। अरिहन्तके द्रव्य गुण पूर्ण हैं और उनकी अवस्था सम्पूर्ण ज्ञान मय है, सम्पूर्ण विकार रहित है, ऐसा निर्णय करनेपर यह प्रतीति होती है कि अपने द्रव्य गुण पूर्ण हैं और उनकी अवस्था सम्पूर्ण ज्ञानरूप, विकार रहित होनी चाहिए।
जैसे भगवान अरिहन्त हैं वैसा ही मैं हूँ, इसप्रकार अरिहन्तको जानने पर स्व समयको मनके द्वारा जीव जान लेता है। यहॉतक अभी अरिहन्तके स्वरूपके साथ अपने स्वरुपकी समानता करता है अर्थात् अरिहन्तके लक्ष्यसे अपने आस्माके स्वरुपका निश्चय करना प्रारम्भ करता है। यहाँ पर लक्ष्यसे निर्णय होनेके कारण यह कहा है कि मनके द्वारा अपने आत्माको जान लेता है। यद्यपि यहो विकल्प है तथापि विकल्पके द्वारा