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-* सम्यग्दर्शनइसीप्रकार शास्त्रके स्वरूपके सम्बन्धमें कहते हैं-यहाँ तो अनेकांत रूप सच्चे लीवादि तत्वोंका निरूपण है तथा सच्चा रत्नत्रय मोक्षमार्ग बताया है। इसलिये यह जैन शास्त्रोंकी उत्कृष्टता है, जिसे यह नहीं जानता। यदि उसे पहचान ले तो वह मिथ्याष्टि न रहे।
___ [मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० ३२६] तीनों में एक ही बात कही है कि यदि उसे पहचान ले तो मिथ्या-- दृष्टि न रहे । इसमें जो पहिचानने की बात की है वह यथार्थ निर्णयपूर्वक जाननेकी बात है। यदि देव, गुरु, शास्त्र को यथार्थतया पहचान ले तो उसे अपने आत्माकी पहचान अवश्य हो जाय और उसका दर्शनमोह निश्चयसे सय हो नाय।
यहाँ 'जो द्रव्य, गुण, पर्यायसे अरिहन्तको जानता है उसे......... ऐसा कहा है किन्तु सिद्धको नाननेको क्यों नहीं कहा ? इसका कारण यह है कि यहाँ शुद्धोपयोगका अधिकार चल रहा है। शुद्धोपयोगसे पहले अरिहंत पद प्रगट होता है, इसलिये यहाँ अरिहन्तको जाननेकी बात कही गई है। और फिर जानने में निमित्तरूप सिद्ध नहीं होते किन्तु अरिहन्त निमित्तरूप होते हैं तथा पुरुषार्थकी जागृतिसे अरिहन्त दशाके प्रगट होजाने पर अधातिया कर्मोंको दूर करनेके लिये पुरुषार्थ नहीं है अर्थान् प्रयत्नसे केवलज्ञान-अरिहन्त - दशा प्राप्त की जाती है इसलिये यहाँ अरिहन्तकी वात कही है। वास्तवमें तो अरिहन्तका स्वरूप जान लेने पर समस्त सिद्धोंका स्वरूप भी उसमें आ ही जाता है।
. अरिहन्तके द्रव्य, गुण, पर्यायको भाँति ही अपने आत्माके स्वरूप को जानकर शुद्धोपयोगकी हारमालाके द्वारा नीव अरिहन्त पदको प्राप्त होता है। जो अरिहन्तके द्रव्य, गुण, पर्याय स्वरूपको जानता है उसका मोह नाशको अवश्य प्राप्त होता है। यहाँ सो जाणदि' अर्थात् 'तो जानता है ऐसा कहकर ज्ञानका पुरुषार्थ सिद्ध किया है। जो ज्ञानके द्वारा