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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
६७ खलु नादि तस्सलय” कहा गया है, उसीमें से यह भाव निकलता है।
अरिहन्त और अन्य आत्माओंके स्वभावमें निश्चयसे कोई अन्तर नहीं है अरिहन्तका स्वरूप अंतिम शुद्ध दशारूप है इसलिये अरिहन्तका ज्ञान करने पर समस्त आत्माओंके शुद्ध स्वरूपका भी ज्ञान हो जाता है । स्वभावसे सभी आत्मा अरिहन्तके समान हैं। परन्तु पर्यायमें अन्तर है। यहाँ तो सभी आत्माओंको अरिहन्तके समान कहा है, अभव्यको भी अलग नहीं किया। अभव्य जीवका स्वभाव और शक्ति भी अरिहन्तके समान ही है। सभी आत्माओंका स्वभाव परिपूर्ण है, किन्तु अवस्थामें पूर्णता प्रगट नही है, यह उनके पुरुषार्थका दोष है वह दोष पर्यायका है स्वभावका नहीं। यदि स्वभावको पहचाने तो स्वभावके बलसे पर्यायका दोष भी दूर किया ना सकता है।
भले ही जीवोंकी वर्तमानमें अरिहन्त जैसी पूर्ण दशा प्रगट न हुई हो तथापि आत्माके द्रव्य गुण पर्यायकी पूर्णताका स्वरूप कैसा होता है यह स्वयं वर्तमान निश्चित कर सकता है।
जब तक अरिहन्त केवली भगवान जैसी दशा नहीं होती तब तक आत्माका पूर्ण स्वरूप प्रगट नहीं होता। अरिहन्तके पूर्ण स्वरूपका ज्ञान करने पर सभी आत्माओंका ज्ञान हो जाता है सभी आत्मा अपने पूर्ण स्वरूपको पहचान कर जबतक पूर्णदशाको प्राप्त करनेका प्रयत्न नहीं करते तब तक वे दुःखी रहते हैं। सभी आत्मा शक्ति स्वरूपसे तो पूर्ण ही है कितु यदि व्यक्तदशारूपमें पूर्ण हों तो सुख प्रगट हो। जीवोंको अपनी ही अपूर्णदशाके कारण दुःख है वह दु.ख दूसरेके कारण से नही है इसलिये अन्य कोई व्यक्ति जीवका दुःख दूर नहीं कर सकता, किन्तु यदि नीव स्वयं अपनी पूर्णताको पहिचाने तभी उसका दुःख दूर हो, इससे मैं किसी का दुःख दूर नहीं कर सकता और अन्य कोई मेरा दुःख दूर नहीं कर सकता ऐसी स्वतन्त्रताकी प्रतीति हुई और परका कर्तृत्व दूर करके ज्ञातारूपमें रहा यही सम्यग्दर्शनका अपूर्व पुरुषार्थ है।