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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला नेका पुरुपार्थ ही न करे उसके तो कदापि धर्म नहीं होता। अर्थात् यहाँ ज्ञान और पुरुषार्थ दोनों साथ ही है तथा सत् निमित्तके रूपमें अरिहन्तदेव ही हैं, यह बात भी इससे ज्ञात होगई।
चाहे सौटंची सोना हो, चाहे पचासटंची हो, दोनोंका स्वभाव समान है किन्तु दोनोंकी वर्तमान अवस्थामें अन्तर है। पचासटंची सोनेमें अशुद्धता है उस अशुद्धताको दूर करनेके लिये उसे सौटंची सोनेके साथ मिलाना चाहिये । यदि उसे ७५ टंची सोनेके साथ मिलाया जाय तो उसका वास्तविक शुद्ध स्वरूप ख्याल में नहीं आयगा और वह कभी शुद्ध नहीं हो सकेगा। यदि सौटंची सोनेके साथ मिलाया जाय तो सौटंच शुद्ध करनेका प्रयत्न करे, कितु यदि ७५ टंची सोनेको ही शुद्ध सोना मानले तो वह कभी शुद्ध सोना प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसीप्रकार आत्माका स्वभाव तो शुद्ध ही है किन्तु वर्तमान अवस्थामें अशुद्धता है। अरिहन्त और इस आत्माके बीच वर्तमान अवस्थामें अन्तर है। वर्तमान अवस्थामें जो अशुद्धता है उसे दूर करना है इसलिये अरिहन्त भगवानके पूर्ण शुद्ध द्रव्य-गुणपर्याय के साथ मिलान करना चाहिये कि 'अहो । यह आत्मा तो केवलज्ञान स्वरूप है, पूर्ण ज्ञान सामर्थ्य है और किचित् मात्र भी विकारवान नहीं है, मेरा स्वरूप भी ऐसा ही है, मै भी अरिहन्त जैसे ही स्वभाववंत हूँ ऐसी प्रतीति जिसने की उसे निमित्तोंकी ओर नहीं देखना होता, क्योंकि अपनी पूर्णदशा अपने स्वभावके पुरुषार्थमें से आती है, निमित्तमें से नहीं आती, तथा पुण्य पापकी ओर अथवा अपूर्णदशाकी ओर भी नहीं देखना पड़ता क्योंकि वह आत्माका स्वरूप नहीं है, बस ! अब अपने द्रव्य-गुणकी
ओर हो पर्यायकी एकाग्रता रूप क्रिया करनी होती है । एकाग्रता करते करते पर्याय शुद्ध हो जाती है । ऐसी एकाग्रता कौन करता है ? जिसने पहले अरिहन्तके स्वरूपके साथ मिलान करके अपने पूर्ण स्वरूपको ख्यालमें लिया हो वह अशुद्धताको दूर करनेके लिए शुद्ध स्वभावकी एकाग्रताका प्रयत्न करता है, किन्तु जो जीव पूर्ण शुद्ध स्वरूपको नहीं जानता और पुण्य पाप