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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
३५ आत्मा और कर्म दोनोंके सूक्ष्म अन्तरंग सन्धिके बन्धमें (आंतरिक सॉधके जोड़नेमें) शीघ्र लगती है । वह कैसे सो बतलाते हैं। आत्माको जिसका तेज अन्तरंगमें स्थिर और निर्मलरूपसे दैदीप्यमान है ऐसे चैतन्य प्रवाहमें मग्न करती हुई और बन्धको अज्ञान भावमें निश्चल करती हुई आत्मा और बन्धको सब ओरसे भिन्न भिन्न करती हुई गिरती है।
इस कलशमें आत्म स्वभावके पुरुषार्थका वर्णन किया गया है, भेद ज्ञानका उपाय दिखाया है। इस कलशके भाव विशेषतः परिणमन कराने योग्य हैं। १-पैनीछैनी, २-किसीप्रकारसे, ३-निपुण पुरुषोंके द्वारा, ४-सावधान होकर चलाई जानेपर, ५-शीव्र गिरती है-चलती है, इसप्रकार पुरुषार्थके वतानेवाले पाँच विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं।
१-पैनी छैनी-जैसे नड़ शरीर में से विकारी रोगको निकालने के लिये पैने और सूक्ष्म चमकते हुए शस्त्रोंसे आपरेशन किया जाता है इसी प्रकार यहाँ चैतन्य आत्मा और रागादि विकारके बीच आपरेशन करके उन दोनोंको पृथक करना है, उसके लिये तीक्ष्ण और तेज प्रज्ञारूपी छैनी है अर्थात् सम्यकज्ञानरूपी पर्याय अन्तरंगमें ढलकर स्वभावमें मग्न होता है और राग पृथक् हो जाता है, यही भेदविज्ञान है।
२-किसी भी प्रकार-पहले तेईसवें कलशमें कहा था कि तू किसी भी प्रकार-मर कर भी तत्त्वका कौतूहली हो, उसीप्रकार यहाँ भी कहते हैं कि किसी भी प्रकार, समस्त विश्वकी परवाह न करके भी सम्यकज्ञान रूपी प्रज्ञा-छैनीको आत्मा और बन्धके बीच डाल । किसी भी प्रकार के कहनेसे यह बात भी उड़ादी गई है कि कर्म इत्यादि बीचमें बाधक हो सकते है। किसी भी प्रकार अर्थात् तू अपनेमें पुरुषार्थ करके प्रज्ञारूपी छैनी के द्वारा भेदज्ञान कर । शरीरका चाहे जो हो किन्तु आत्माको प्राप्त करना है-यही एक कर्तव्य है, इसप्रकार तीव्र आकांक्षा और रुचि करके सम्यकज्ञान को प्रगट कर । यदि बिजलीके प्रकाशमें सुईमें डोरा डालना हो तो उसमें कितनी एकाग्रता आवश्यक होती है? उधर बिजली चमकी