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* सम्यग्दर्शन - अर्थः-संसारमें वृद्धिका होना ही दुर्लभ है और फिर उसमें भी परलोक के लिये बुद्धिका होना तो और भी दुर्लभ है, ऐसी बुद्धि पाकर जो प्रमाद करते हैं उन जीवों को ज्ञानी बहुत ही शोचनीय दृष्टि से देखते हैं।
इसलिये जिते सच्चा जैनी होना है उसे तो शास्त्रके आधार से तत्व निर्णय करना उचित है किन्तु जो तत्व निर्णय तो नहीं करता और पूजा, स्तोत्र, दर्शन, त्याग, तप, वैराग्य संयम, संतोष आदि सभी कार्य करता है। उसके यह सव कार्य असत्य हैं।
इसलिये आगम का सेवन, युक्ति का अवलंवन, परंपरासे गुस्ओं के उपदेश और स्वानुभवके द्वारा तत्वका निर्णय करना चाहिये। जिन वचन तो अपार है उसका पार तो श्री गणधर देव भी प्राप्त नहीं कर सके इसलिये जो मोक्षमार्ग की प्रयोजनभूत रकम है उसे निर्णय पूर्वक अवश्य जाननी चाहिये । कहा भी है कि
अंतोणत्थिं सुईणं कालो थोआवयं च दुम्महा । । - तंणवर सिक्खियव्यं जिं जर मरणक्खयं कुणहि ॥
(पाहुड दोहा ८) अर्थः-श्रुतियों का अन्त नहीं है काल थोड़ा है और हम निर्बुद्धि (अल्पबुद्धिवाले ) हैं इसलिये हे जीव ! तुम तो वह सीखना चाहिये तू जन्म मरण का नाश कर सके। आत्महितके लिये सर्व प्रथम सर्वज्ञका निर्णय करना चाहिये ।
तुम्हे यदि अपना भला करना हो तो सर्व आत्महित का मूलकारण जो आप्त है उसके सच्चे स्वरूप का निर्णय करके ज्ञान में लाओ क्योंकि सर्व जीवोंको सुख प्रिय है। सुख भावकों के नाशले प्रात होता है, भाव कर्मोंका नाश सम्यकचारित्रसे होता है, सम्यकचारित्र सम्पन्दर्शन-सम्यग्ज्ञान पूर्वक होता है, सम्यग्ज्ञान भागमसे होता है, आगम किसी वीतराग पुरुष की वाणीते उत्पन्न होता है और वह वाणी किसी वीतराग पुस्पके