Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 6
________________ हो है गौर यह मास्तिस्य भावना का घोतक भी है-ऐसे वर्णन भी इस अन्य में अत्यन्त सर एवं रोचक रूप से पर्सित किये गये हैं। गहुत प्रसन्नता है कि कुछ ही वर्षों से हमें आचार्य श्री की अमीतक अप्रकाशित एवं अनुपम रचनामों को हिन्दी में भी पड़ने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। श्री जसवाल दिगम्बर जैन समाज मजमेर को भी हम धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते, जिस समाज के महानुभावों ने श्री १०५ बी ऐलक सन्मति सागरजी महाराज की संस्कृत काम्य सत्प्रेरणा से प्रन्य को हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित कर एक बावश्यक सत्कार्य की पति की है। अधिक कहां तक कहा जाय यह प्रन्थ खांड की रोटी के समान मधुर एवं रमपूर्ण है । संस्कृत के महदय महानुभावों के लिये तो यह भलंकारपूर्ण रमास्वाददापी देन है ही किन्तु हिन्दी के जानने बाले भी सजन जिस दृष्टि कोण से इस प्रस्य का आस्वादन करेंगे उन्हें इसी धारा में अनुपम भानन्द की प्राप्ति होगी। पण्डित महेन्द्रकुमार जी पाटनी काव्यती किशनगद एवं श्री नेमीचन्दजी बाकलीपाल को भी हम धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते विनोंने बहुत कम समय में ही इस प्रन्य की भाषाद को सुन्दर बनाने में पूर्ण सहपोग दिया है। देवाधिदेव बी जिनंन्द्रदेव से प्रार्थना है कि भाचार्य जी का स्वाध्य उत्तम रहे। ये चिरायु हरों, इन आचार्य श्री की उपस्थिति में ही हम भाप "बोदय" महाकाव्य को भी हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित देख सकें। इतना ही नहीं बल्किी १०८ श्री विद्यासागर

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