Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 4
________________ पुराण, चरित्रादि का निर्माण कर अपने युग की आवश्यकता के अनुसार प्रथमानुयोग द्वारा भावुक जनता का कल्याण किया; किन्तु वे महापुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, सरीसी विस्तृत रचनायें है आज के विद्यार्थी का न तो उतना क्षयोपशम ही है; न तद्गत विषयों का याद रखने की स्मरण शक्ति ही; साथ ही उसके पास इतना समय भी नहीं है जिससे वह उन विशाल कृतियों से पूर्ण लाभ उठा सके । बालकोपयोगी संस्कृत साहित्य की बड़ी कमी है। ज्ञानमूर्ति चारित्रभूषण आचार्य श्री १०८ श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने इस कर्मी का अनुभव करके, न कठिन तथा न बहुत सरल ही किन्तु मध्यमणी के इस खण्ड काव्य की रचना तुल्लक अवस्था में की है । आजन्म ब्रह्मचारी, दुरदर्शी आचार्य श्री के द्वारा भ्रष्टाचार को दूर करने के लिये तथा मत्य की प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण रूप से स्थापित करने के लिये ही भद्रदत्त ( समुद्रदप्त ) का कथानक अपने आगामी भवों महित सुन्दर रूप में उपस्थित किया गया है । भारतवर्ष की आदरगीय जनतन्त्र को महत्व देने वाली सरकार का उद्देश्य तो है 'सत्यमेव जयते नानृतम्' अर्थात् सत्य की ही विजय हाती है झूठ की नहीं, किन्तु इस सिद्धान्त को जनता के हृदय में सर्वदा के लिये स्थापित करने के लिये सरकार का कोई मौलिक प्रयास नहीं है। बालकोपयोगी एव सम्प्रदायबाद से रहित मानवोचित अनुपम सरस रचनायुक्त यह भद्रोदय काव्य उस कार्य की पूर्ति के लिये भी एक बड़ा ही सुन्दर एवं प्रशसनीय प्रयत्न है । आचार्य श्री ने न केवल जैन धर्मावलंबियों के ही हितार्थ

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