Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 3
________________ दो शब्द इस प्रम्य की पृथक् भूमिका की आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि पूज्य आचार्य श्री ने प्रथम सर्ग की रचना ही भूमिका के रूप में निर्मार्पित की है। समुद्रदत्त ( भद्रदप्त ) गृहस्थके आवश्यक न्यायानुसार धनार्जन के निमित्त विदेश में जाता है और पुरोहितजी के द्वारा रत्नों के हरण किये जाने पर केसी विपत्ति में फँसता है, किन्तु सत्य धर्म के पालन द्वारा वह भद्र इस भव और परभव में भी भलीकिक सुखों की प्राप्ति करता है, यही भद्रोदय प्रन्य का मूल आशय है । विज्ञान के चमत्कारों ने संसार की दृष्टि को चकाचौंध कर दिया है, सबकी शिकायत है कि सिनेमा में जाकर बच्चे एवं बच्चियों का जीवन बिगड़ जाता है और वे न अपने माता पिताओं का कहना ही मानते हैं और न पास पड़ोसियों के साथ ही अच्छा व्यवहार करते हैं । यह कहना सच तो है किन्तु अरण्यरोदन है-उपाय विहीनदैन्य एवं विवशतापूर्ण कथन है । पांचों इन्द्रियां अपने २ काम में स्वतः प्रवृत्त होती हैं और मन के सहयोग से उसमें रस प्राप्ति कर सन्तुष्टि का अनुभव करती हैं। अब यह प्रवृत्ति चाहे भली हो या बुरी किन्तु ३० प्रतिशत व्यक्तियों को ऐसा करना ही पड़ता है, केवल हमारा पुरुषार्थ वही समीचीन समझा जा सकता है जिसके द्वारा पांचों इन्द्रियों की तथा मन की अशुभ प्रवृत्ति को रोककर शुभ की ओर उनकी गतिको हम बदल दें। पूर्व आचार्यों का ध्यान भी इस भार था, उन्होंने बड़े २

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