Book Title: Sammetshikhar Jain Maha Tirth
Author(s): Jayprabhvijay
Publisher: Rajendra Pravachan Karyalay

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir को नया रूप दिया गया। इस जीर्णोद्धार के पूर्व निर्वाण भूमिका पर खुले चबूतरों पर पगलियाजी विराजमान थे। उनको वन्य बन्दर आदि प्राणियों द्वारा नाना आशातनाएँ हुआ करती थीं, किन्तु इस जीर्णोद्धार में समग्र चबूतरों पर लघु देहरियाँ संगमरमर के पत्थर से निर्मित की गई और उनके पाट लगे होने से वहाँ अशातना की गुंजाईश अब नहीं रही। इसके उपरान्त जल मन्दिर को नए सिरे से शिल्प नियमानुसार अभिनव शैली से निर्मित किया गया है। इस जीर्णोद्धार के पश्चात् महोत्सवपूर्वक सं. २०१७ फागुण वदि ७ बुधवार को माणिक्यसागरसूरिजी द्वारा प्रतिष्ठा करवाई है। इस प्रतिष्ठा में मूलनायक प्राचीन प्रतिमा श्री पार्श्वनाथजी प्रभु की स्थापना कलकत्ता के व्यवसायी सेठ श्री अदरजी मोतीचन्द मेहता ने एक लाख सौलह हजार एक रुपये की बोली देकर की थी। विगत दो शताब्दियों में इतनी बड़ी रकम बोली किसी जैन तीर्थ में हुई, सुनी नहीं गई। ___ तीर्थंकर प्रभुजीने सूत्रों में इस तीर्थ की खूब महिमा बतलाई है। इस महान् तीर्थ की वंदना में पूर्व आचार्यों ने विभिन्न स्तोत्रादि बनाए हैं। स्तवना और वन्दना में इस तीर्थराज को अपने महात्म्य के अनुरूप प्राथमिकता एवं प्रधानता दी है: णमो अरिहंताणं - चवण - जम्म वय णाण णिव्वाणपत्ताणं। अट्ठावय सम्मेतो - ज्जित पावासु तित्थेसु॥ श्री आचारांग सूत्र सु.चू. ३ भावनाध्ययन। णमो लोए सव्व सिद्धाययाणं श्री गौतम गणधर मल्लिणं अरिहा सुहंसुहेणं विहरिता जेणेव सम्मेत पव्वए सम्मेअ सेल सिहरे पाओवगम तेणं कासेणं तेणं समएणं अरहा पुरिसादाणिए... उप्पिं सम्मेअ सेल सिहरंसि अप्प चउतीस इमे मासिएणं भत्तेणं अप्पाणएणं श्री दशाश्नुत स्कन्ध छेद सूत्र अ. ८ विगत मोहोय अरो तित्थयरो? सम्मेतशिखर वंदु जिन वीश, अष्टापद वंदु चौवीस For Private And Personal

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