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पश्चात् भगवान महावीर के सदुपदेश से मगध सम्राट श्रेणिक ने इस तीर्थराज का उद्धार का सौभाग्य प्राप्त किया था।
इसके पश्चात् वनवासीगच्छ के आचार्य श्री यशोदवसूरि के पट्टघर श्री प्रद्युम्न सूरि ने इस तीर्थ का उद्धार करवाया था और इसके पश्चात् ही इस तीर्थ का क्रमबद्ध इतिहास व्यक्त होता है। श्री सम्मेतशिखर तीर्थ पर स्थित जल मन्दिर में एक प्राचीन विशाल चौवीसी सर्व धातुमय प्रतिमा पर सं. ११८७ का शिलालेख है। एक और शिलालेख में सम्मेतशिखर के मन्दिरों के जिर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठा सं. १३४५ में किए जाने का प्रमाण मिलता है। यह शिलालेख आबू गिरिराज वर्तुल के विख्यात तीर्थ श्री कुंभारियाजी मन्दिर में है। प्राचीनकाल में तीर्थ स्थानों में प्रायः मुख्य उल्लेखों को शिलालेखों में उत्कीर्ण कर लेने की प्रणाली रही थी। श्री अर्बुदाचल प्रदिक्षिणा जैन लेख संदोह आबू भाग ५ में लेख सं. ३० में उल्लेख है कि परमानंद मृरि के सदुपदेश से सम्मेतशिखरजी तीर्थ में मुख्य प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई.....। तेरहवीं शताब्दी में हुए आचार्य देवेन्द्रसूरि विरचित 'वृन्दारूवृत्ति' में श्री सम्मेतशिखर नीर्थ पर जिन प्रतिमाएँ होने के उल्लेख हैं।
(३) लेकिन मध्य युग में अनेक राज्य क्रान्तियाँ हुईं। हिन्दुओं का शासन छिन्न-भिन्न हुआ और साथ ही धर्मों में अनेक उथल-पुथल हुए। शंकराचार्य के उद्भव ने बौद्ध धर्म को भारत से खदेड़ दिया। इतिहास बतलाता है कि शंकराचार्य के पहले पूर्व, भारत में जैन धर्म खूब विकसित था। लेकिन नवमी शताब्दी के आरंभ के साथ ही यहाँ के वातावरण में परिवर्तन हुआ और यहाँ के कई जैन सुदूर मालवा राजस्थान लाट इत्यादि प्रदेशों में चले गए। अपने साथ वे इस तीर्थ वर्तुल के नगरों से मुख्य प्रतिमाएँ भी ले गए।
(४) संभव है इस तीर्थ की प्रतिमाएँ भी आपत्तिकाल में अन्यत्र ले जाई गई हो। इस तीर्थराज पर बीस तीर्थंकर भगवान की छत्रियाँ उनके निर्वाण स्थल पर
३. चैत्यान्त विधिवत गत्वा, कृत्वा तिस्त्र (प्रदिक्षणा), स्नपयित्वा जिनानुचैर्रचयामास सादर ।
४. श्री जिनप्रभसूरि लिखित विविध तीर्थ कल्प में उल्लेख है कि नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि के आचार्य श्री देवेन्द्र सूरि ने अयोध्या से चार विशाल प्रतिमाएं लाकर एक मालधार गांव में तथा तीन प्रतिमा सेरीसा (गुजरात) में स्थापित की -
और देखिये जैन परम्परानो इतिहास भाग (२) प्रकरण ७ प्रष्ठ ३०२ प्रकरण ४२ पृष्ठ ७४४ भाग ३ प्रकरण ४५।
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