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क्या करना है? अधिकारियों को अपनी सेहत सुधारने के अड्डे बनाना है। दूसरा, जिस पर्वत पर हम जूते पहनकर भी नहीं जाते, उस पर इस बात की क्या गारंटी कि वे खाएँगे-पीएंगे नहीं, मलमूत्र निष्कमण नहीं करेंगे और नंगे पैर ऊपर चढ़ेंगे? जैनों के अधिकार सुरक्षण की बात तो मात्र एक सांत्वना है तथा जंगल का विकास एक ओट। ___ राज्य की आमदनी क्या बढ़ेगी, संभवतः समुद्र में एक बुंद जितनी। वहाँ सोने-चाँदी की खदानें तो हैं नहीं, जो खोदते ही धन का पहाड़ खड़ा हो जाएगा। वहाँ जंगल अधकारी रहेंगे, पी.ए., प्यून रहेंगे, ऑफिस और कैम्प लगेंगे, ५-१५ कर्मचारियों की अर्दली तो यूँ ही बन जाएगी; फिर आजकल देश के ईमानदार अधिकारी योजनाओं से आमदनी ही कहाँ देते हैं? घाटा ही घाटा है और यदि बिहार सरकार अड़ी रही तो यहाँ पर भी घाटे का सौदा ही हाथ लगेगा।
खैर! कुल मिलाकर पारसनाथ हिल्स पर अधिकार मात्र एक हटाग्रह तथा दुराग्रह ही है। जैन समाज किसी मूल्य व किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं कर सकती कि अनन्त आत्माओं की सिद्ध भूमि का अंग्रेजी, वैज्ञानिक उपकरणों से इस प्रकार छेदन-भेदन हो। इतिहासों से हम अजेय रहे हैं। जैनों का धर्म, कायरों का धर्म नहीं, बल्कि राजा, महाराजा, सम्राट, सेनापतियों का धर्म रहा है। आज, लोकतांत्रिक सरकार है तो उसे जनमानस की आवाज का सम्मान करना होगा। नहीं तो सत्याग्रह की पंक्तियाँ खड़ी होंगी और श्रावक को ठीक, साधु-मुनियों का नेतृत्व आगे होगा....!
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