Book Title: Sammetshikhar Jain Maha Tirth
Author(s): Jayprabhvijay
Publisher: Rajendra Pravachan Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 42
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेथी शतगुणफल मेरु चैत्य जुहारे, सहस गणेरू फल सम्मेतशिखरे॥ भ.स. ४- सिद्ध तणा थानिक भवी फरसित, सिद्ध वधु वरमाला नंदी अन्य तीरथ यात्रा फल होवे, सहस गुणी सिद्ध यात्रा नंदी। अन्य तीर्थों कोडि वर्ष जो कीजे, दान दया-तप-जप आनंदी॥ एक मुहूर्त सिद्ध क्षेत्र करंता, पुण्य लहे भवि पुण्यानन्दी भव कोडिना पाप खपावे पग - पग पावे ऋद्धि अमंदी॥ अन्य तीर्थों में करोड़ों वर्षों तक किए गए दान-तप-जप-दया आदि सदाचरणों से जो लाभ प्राप्त होता है, उसी लाभ की प्राप्ति, सिद्ध क्षेत्रिय तीर्थों की यात्रा के महत्व की गरिमा है। सहु तीरथ माहे, सरस सम्मेतशिखर गिरिराय। ' सिद्ध भयाज्यां वीस प्रभु साधु अनंत शिवपाय॥ तीर्थंकर मोक्षे गया, मोक्ष गिरि तिण नाम। कारण कारज निपजे, आलंबन विश्राम॥ महिमा जाकि महियले, कह न सके कवि कोय। मुक्ति महले निसरणिका, इण तीरथ जग जोय॥ छरी पाले जेह नर भावे, भेटे शिखर गिरिन्द। ते नर मन वांछित फल पावे, सुर तरू नो कंद॥ तन, मन सुत वल्लभा, स्वर्गादिक सुख भोग। जे वंछे ते संपजे शिव रमणी संयोग। तीर्थराज के दर्श से, होय विपत्ति सब दूर। अष्ट सिद्धि ओ नव निधि रहे सदा भरपूर॥ नरपति सुरपति संपदा, मिले न कछु संदेह। प्रगटे आतम ज्योति रवि, सर्वज्ञान सुख गेह। यात्रा भविजन कीजिए, त्रिविध भक्ति विशेष। दर्श स्पर्श नित कीजिए, लहिये पुण्य अशेष॥ एक तीरथ वन्दन कर्या, सहु सिद्ध वंदाय। सिद्धालंबी चेतना, गुण साधकता थाय॥ - पं. देवचन्द्रजी महाराज For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71