Book Title: Sammetshikhar Jain Maha Tirth
Author(s): Jayprabhvijay
Publisher: Rajendra Pravachan Karyalay

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Page 44
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करना पड़ता था। तीर्थ भूमि की यात्रा में इन हरकतों को सदैव के लिए समाप्त करने हेतु पालगंज राजा से यह पहाड़ किमतन खरीद लिया। उसके पश्चात् इस तीर्थ का खूब विकास हुआ। मुगलकाल में भी इस तीर्थ को शासकीय पंजों से मुक्त करने का श्रेय अनेक शासन प्रभावकों को रहा। सम्राट अकबर द्वारा यह तीर्थ क्षेत्र जगद्गरु श्री हीरसूरि को सन् १५८२ में भेंट दिया गया। इसके पश्चात् बादशाह अहमदशाह द्वारा यह तीर्थ पुनः जगत सेठ श्री मेहताबसिंहजी को सन् १९४८ में भेंट किया गया था और साथ ही मधुवन के विस्तृत मैदान पारसनाथ की तलहटी आदि क्षेत्र भेंट दिए गए थे। बादशाह जहाँगिर के द्वितीय पुत्र आलमगिर द्वारा सन् १७५५ में इस तीर्थ भूमि को कर मुक्त घोषित किया था। इस तीर्थ के आराध्य स्थल यद्यपि सनातन अपरिवर्तनीय रहे तथापि उन पर भिन्न युगों में अनेकानेक सुधार संस्करण होते रहे; फिर भी इस तीर्थराज की यह मुख्य विशेषता रही कि तीर्थंकर निर्वाण स्थली की बीस देव कुलिका एवं स्थापना तीर्थ की कुलिकाओं अर्थात् सम्मेतशिखर तीर्थ भूमि में जल मन्दिर के अतिरिक्त कहीं भी जिन प्रतिमाएं स्थापित नहीं हैं। ऐसा होना एक प्रकार से दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों आमनाय की अर्चना विधि में अड़चन पैदा नहीं करता अतः इस तीर्थ की अर्चना यात्रा में भी सभी जैन समान रूप से श्रद्धान्वित हो पुण्य यात्रा का लाभ अध्यावधि प्राप्त करते रहे हैं। क्या ही अच्छा हो यदि दोनों समाज अन्य तीर्थ स्थलियों में भी जहाँ जिन प्रतिमाएँ विराजमान हैं, वहाँ पारस्परिक अर्चन विधि की विषमताओं और उनसे व्युत्पन्न आचारभेद की गुत्थियों को दूर कर एक ऐसी सर्वमान्य विधि को अपनाते, जिससे दिगम्बर-श्वेताम्बर आदि जैनों की अर्चन पूजन में किसी भाँति का व्यवधान पैदा न हो। समय की यह माँग है और इसके प्रति दुर्लक्ष्य करना, अब शोभनीय नहीं। बिहार सरकार ने इस तीर्थ भूमि पर ता. २.४.९४ को कब्जा कर हमारे सामने एक समस्या पैदा कर दी है। यदि हम तीर्थ के प्रति कुछ करने को उत्सुक हैं और तीर्थ पर आई हुई शासकीय विपत्ति से तीर्थ को मुक्त करने की हममें भावना है, तो हमें पारस्परिक भेदों को भुलाकर तीर्थ समस्या को सुलझाने के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिए। पारस्परिक कलह ने हमको श्री घुलेवा (केसरियाजी) जैसे तीर्थ के प्रति अपना दायित्व निभाने से वंचित रखा। आज कोई भी श्रद्धालू, श्री केशरियाजी को भेंटकर उस तीर्थराज की पूर्व जाहोजलाली का लेश भी वहाँ न For Private And Personal

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