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सागरमल जन
(द) अनुभाग बन्ध - यह कर्मों के बन्ध एवं विपाक की तीव्रता और मन्दता का निश्चय करता है । यह तोत्रता या गहनता (Intensity) का सूचक है ।
कर्म की मूर्तता
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जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य-कर्म पुद्गल जन्य है, अतः मूर्त माना गया है । कारण से जिस प्रकार कार्य का अनुमान होता है उसी प्रकार कार्य से भी कारण का अनुमान होता है । इस सिद्धान्त के अनुसार शरीर आदि कार्य मूर्त है तो उनका कारण कर्म भी मूर्त ही होना चाहिए । कर्म की मूर्तता सिद्ध करने के लिए कुछ तर्क इस प्रकार दिए जा सकते हैंकर्म मूर्त है, क्योंकि उसके सम्बन्ध से सुख-दुःख आदि का संवेदन होता है, जैसे भोजन से । कर्म मूर्त है, क्योंकि उसके सम्बन्ध से वेदना होती है, जैसे अग्नि से । यदि कर्म अमूर्त होता, तो उसके कारण सुख दुःखादि की वेदना सम्भव नहीं होती ।
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मूर्त का अमूर्त पर प्रभाव :
किन्तु प्रश्न यह है कि यदि कर्म मूर्त है, तो फिर वह अमूर्त आत्मा पर अपना प्रभाव कैसे डालता है ? जिस प्रकार वायु और अग्नि का अमूर्त आकाश पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार अमूर्त आत्मा पर भी मूर्त कर्म का कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए ? इसका उत्तर इतना ही है कि जैसे अमूर्त ज्ञान आदि गुणों पर मूर्त मदिरा आदि का प्रभाव पड़ता है, वैसे ही अमूर्त जीव पर भी मूर्त कर्म का प्रभाव पड़ सकता है । उक्त प्रश्न का एक दूसरा तर्क संगत एवं निर्दोष समाधान यह भी है, कि कर्म के सम्बन्ध से आत्मा कथंचित् मूर्त भी है। क्योंकि संसारी आत्मा अनादि काल से कर्म संतति से सम्बद्ध है, इस अपेक्षा से आत्मा सर्वथा अर्मूत नहीं है, अपेतु कर्म-सम्बद्ध होने के कारण
मूलतः अमूर्त होते भी कथंचित् मूर्त है । इस उपघात, अनुग्रह और प्रभाव पड़ता है । लागू होता है वह व्यक्तित्व अमूर्त नहीं । हमारा आत्मा ( अभौतिक) का एक विशिष्ट संयोग है । तथ्यों से अप्रभावित नहीं रह सकता है । जब तक से मुक्त नहीं हो जातो तब तक वह अपने को भौतिक प्रभावों से पूर्णतया अप्रभावित नहीं रख सकतीं । मूर्तं शरीर के माध्यम से उस पर मूर्त कर्म का प्रभाव पड़ता है ।
दृष्टि से भी अमूर्त आत्मा पर मूर्त कर्म का वस्तुतः जिस पर कर्म सिद्धान्त का नियम वर्तमान व्यक्तित्व शरीर (भौतिक) और एक सशरीर युक्त आत्मा भौतिक शरीर (कर्म - शरीर ) के बन्धन
आत्मा
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मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा से सम्बन्ध
सम्भवतः यह प्रश्न भी उठ सकता है कि मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा से कैसे सम्बन्धित होते हैं । जैन विचारकों की दृष्टि में इस प्रश्न- का समाधान यह है कि जैसे मूर्त घट अमूर्त अकाश, के साथ सम्बन्त्रित होता है वैसे ही मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा के साथ सम्ब--- न्धित होते हैं । जैन, विचारकों ने आत्मा और कर्म के सम्बन्ध को नीर-क्षीरवत् अथवा अग्नि- लोहपिण्डवत् माना है । सम्भवतः यह प्रश्न उझया जा सकता है कि यदि दो स्वतन्त्र सत्ताओं जड़ कर्म परमाणु और चेतन में पारस्परिक प्रभावकता को स्वीकार किया जावेगा तो फिर मुक्तावस्था में भी जड़ कर्म परमाणु आत्मा को प्रभावित किए बिना नहीं रहेगे और मुक्ति का कोई अर्थ नहीं होगा और यदि वे परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करने में सक्षम नहीं है तो फिर बन्धन ही कैसे सिद्ध होगा ? आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रश्न का
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