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जैन यक्षी अजिता (या रोहिणी) का प्रतिमानिरूपण
मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी - जैन देवकुल में यक्ष एवं यक्षियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । जैन ग्रन्थों में इनका उल्लेख जिनों के शासन-और उपासक-देवों के रूप में हुआ है । जैन ग्रन्थों के अनुसार समबसरण में जिनों के धर्मोपदेश के बाद इन्द्र ने प्रत्येक जिन के साथ सेवक देवों के रूप में एक यक्ष और एक यक्षी को नियुक्त किया। शासनदेवताओं के रूप में जिनों के समीप सर्वदा रहने के कारण ही जैन देवकुल में यक्ष और यक्षियों को जिनों के बाद सर्वाधिक प्रतिष्ठा मिली । ल. छठी शती ई० में जिन-मूर्तियों में और ल० नवीं शती ई० में स्वतन्त्र मूर्तियों के रूप में यक्ष-यक्षियों का निरूपण प्रारम्भ हुआ ।
ग्रन्थों में ल० आठवीं-नवीं शती ई० में २४ यक्ष-यक्षी युगलों की सूची तैयार हुई । प्रारम्भिकतम सूचियाँ कहावलो (श्वेतांबर), तिलोयपण्णत्ति' (दिगम्बर) एवं प्रवचनसारोद्धार (श्वेतांबर) में मिलती हैं । २४ यक्ष-यक्षी युगलों की स्वतन्त्र लाक्षणिक विशेषताएँ ग्यारहवोंबारहवीं शती ई० में निर्धारित हुई, जिनके प्रारम्भिकतम उल्लेख निर्वाणकलिका श्वेतांबर), त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (श्वेतांबर) एवं प्रतिष्ठासारसंग्रह (दिगम्बर) में हैं । यह भी ज्ञातव्य है कि स्वतन्त्र अंकनों में यक्ष की तुलना में यक्षियों के चित्रण विशेष लोकप्रिय थे । २४ यक्षियों के सामूहिक अंकन के हमें तीन उदाहरण मिले हैं, जो क्रमशः देवगढ़ (ललितपुर, उ० प्र०, मन्दिर १२, ८६२ ई०), पतियानदाई (सतना, म०प्र०, अंबिका मूर्ति, ११वीं शती ई०), और बारभुजी गुफा (खण्डगिरि, उड़ीसा, ११-१२वीं शती ई०) से प्राप्त हुए हैं । २४ यक्षों के सामूहिक चित्रण का सम्भवतः कोई प्रयास नहीं किया गया ।
प्रस्तुत लेख में हम दूसरे जिन अजितनाथ की अजिता (या रोहिणी) यश्ची के प्रतिमाविज्ञान का विस्तृत अध्ययन करेंगे । यक्षी के प्रतिमाविज्ञानपरक विकास को पहले साहि'त्यिक साक्ष्य के आधार पर और बाद में पुरातात्त्विक साक्ष्य के आधार पर निरूपित किया गया है। अन्त में दोनों का तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक अध्ययन भी किया है । शास्त्रीय परम्परा :
जिन अजि.नाथ की यक्षी को श्वेताबर परंपरा में अजिता (या अजितबला या विजया) और दिगम्बर परम्परा में रोहिणी नाम दिया गया है। दोनों परम्पराओं में चतुर्भुना यक्षी को लोहासन पर विराजमान बताया गया है ।
उत्तर भारतीय श्वेतांबर परम्परा : निर्वाणकलिका (११वों-१२वीं शतो ई०) में लोहासन पर विराजमान चतुर्भुजा अजिता के दाहिने हाथों में वरदमुद्रा एवं पाश, और बायें हाथों में अंकुश एवं फल के प्रदर्शन का विधान है। अन्य ग्रन्थों में भी उपर्युक्त लक्षणों के ही उल्लेख हैं । आवारदिनकर (१४११ ई.) एवं देवतामूर्तिप्रकरण (ल. १५वीं शती ई०) में यक्षी के वाहन के रूप में लोहासन के स्थान पर क्रमशः गाय और गधा का उल्लेख है। . उत्तर भारतीय दिगम्बर परम्परा : प्रतिष्ठासारसंग्रह (१२वीं शती ई०) में लोहासन पर विराजमान चतुर्भुजा रोहिणी के हाथों में वरदमुद्रा, अभयमुद्रा, शंख, एवं चक्र के अंकन का निर्देश है" । अन्य ग्रन्थों में भी यही विवरण प्राप्त होता है ।
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