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सागरमल जैन तत्व के रूप में माना गया है" । जबकि तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने जीव, अजीव, आसव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन सातों को ही तत्त्व कहा है; वहाँ पर पुण्य और पाप का स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में स्थान नहीं है। लेकिन यह विवाद अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत नहीं ोता स्योंकि जो परम्परा उन्हें स्वतन्त्र तत्त्व नहीं मानती है वह भी उनको आस्रव तत्त्व के अन्तर्गत तो मान लेती है । यद्यपि पुण्य और पाप मात्र आस्रव नहीं है वरन् उनका बंध भी होता है और विपाक भी होता है। अतः आस्रव के दो विभाग शुभास्रव और अशुभासव करने से काम पूरा नहीं होता वरन् बन्ध और विपाक में भी दो दो भेद करने होंगे । इस वर्गीकरण की कठिनाई से बचने के लिए ही पाप एवं पुण्य को दो स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में मान लिया है।
फिर भी जैन विचारणा निर्वाण मार्ग के साधक के लिए दोनों को हेय और त्याज्य मानती है क्योंकि दोनों ही बन्धन का कारण है । वस्तुतः नैतिक जीवन की पूर्णता शुभाशुभ या पुण्यपाप से ऊपर उठ जाने में है। शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) का भेद जब तक बना रहता है नैतिक पूर्णता नहीं आती है। किन्तु अशुभ पर पूर्ण विजय के साथ ही व्यक्ति शुभ (पुण्य) से भो ऊपर उठकर शुद्ध दशा में स्थित होता जाता है। जैन दृष्टिकोण:
ऋषिभासित सूत्र में ऋषि कहता है कि पूर्वकृत पुण्य और पाप संसार संतति के मूल है । आचार्य कुन्दकुन्द पुण्य पाप दोनों को बन्धन का कारण मानते हुए भी दोनों के बन्धकरव का अन्तर भी स्पष्ट कर देते है। समयसार ग्रन्थ में वे कहते हैं 'अशुभकर्म पाप (कशील) और शुभ कर्म पुण्य (सुशील) कहे जाते हैं। फिर भी पुण्य कर्म भी संसार (बन्धन) का कारण होता है। जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी लोहे की बेड़ी के समान ही व्यक्ति को बन्धन में रखती है उसी प्रकार जीव कृत सभी शुभाशुभ कर्म भी बन्धन का कारण होते हैं।' आचार्वानों को ही आत्मा की स्वाधीनता में बाधक मानते हैं। उनकी दृष्टि में पुण्य स्वर्ण बेदी है और पाप. लौह बेदी । फिर भी आचार्य पुण्य को स्वर्ण बेड़ी कहकर उसकी पाप से किञ्चित श्रेष्ठता सिद्ध कर देते हैं । आचार्य अमृतचन्द्र का कहना है कि पारमार्थिक दृष्टिकोण से पुण्य और पाप दोनों में भेद नहीं किया जा सकता क्योंकि अन्ततोगत्वा दोनों ही बन्धन है। इसी प्रकार पण्डित जयचन्द्रजी ने भी कहा है
- पुण्यपाप दोऊ करम, बन्धरूप दुइ मानि ।
. शुद्ध आत्मा जिन लह्यो, नमू चरन हित जानि ॥ जैनाचार्यों ने पुण्य को निर्वाण की दृष्टि से हेय मानते हुए भी उसे निर्वाण का सहायक तत्त्व स्वीकार किया है । यद्यपि निर्वाण की स्थिति को प्राप्त करने के लिए अन्ततोगत्वा पुण्य को छोड़ना होता है फिर भी वह निर्वाण में ठीक उसी प्रकार सहायक है जैसे साबुन वस्त्र के मैल को साफ करने में सहायक है । शुद्ध वस्त्र के लिए साबुन का लगा होना जिस प्रकार अनावश्यक है, उसे भी अलग करना होता है । वैसे ही निर्वाण या शुद्धात्मक दशा में पुण्य का होना भी आवश्यक है, उसे भो क्षय करना होता है । लेकिन जिस प्रकार साबुन मैल को साफ करता है और मैल की सफाई होने पर स्वयं अलग हो जाता है वैसे ही पुण्य भी पाप रूप मैल को अलग करने में सहायक होता है और उसके अलग हो जाने
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