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समयसार
की
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८७-८८ |
१५०-१५२
८९-९२ |
९३ |
१५२-५७ १५७–१५८ १५९-१६१ १६१-१६२ १६३-१६६
९६ | ९७
।
कथन और उसका हेतु आत्माके मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति ये तीन परिणाम अनादि हैं उनका कर्तृपना और उनके निमित्त से पुद्गलका कर्मरूप होना आत्मा मिथ्यात्वादिभावरूप न परिणमे तब कर्मका कर्ता नहीं है अज्ञानसे कर्म कैसे होता है ऐसे शिष्यका प्रश्न और उसका उत्तर कर्मके कर्तापनका मल अज्ञान ही है ज्ञानके होनेपर कर्त्तापन नहीं होता व्यवहारी जीव पुद्गलकर्मका कर्त्ता आत्मा को कहते हैं यह
अज्ञान है आत्मा पुद्गलकर्मका कर्त्ता निमित्तनैमित्तिकभावसे भी नहीं है, आत्माके योग, उपयोग हैं वे निमित्तनैमित्तिकभावसे कर्त्ता हैं
और योग उपयोगका आत्मा कर्ता है ज्ञानी ज्ञान का ही कर्ता है अज्ञानी भी अपने अज्ञानभावका तो कर्त्ता है, पुद्गलकर्मका कर्ता
तो ज्ञानी या अज्ञानी कोई नहीं है क्योंकि परद्रव्योंके परस्पर
कर्तृकर्मभाव नहीं है | एक द्रव्य अन्य द्रव्यका कुछ भी कर सकता नहीं जीवको परद्रव्यके कर्त्तापनेका हेतु देख उपचार से कहा जाता है
कि यह कार्य जीवने किया है मिथ्यात्वादिक सामान्य आस्रव और विशेष गुणस्थान ये बंध के
कर्ता हैं निश्चयकर जीव इनका कर्ता भोक्ता नहीं है-स्पष्ट सूक्ष्म
कथन जीव और आस्रवोंका भेद दिखलाया है अभेद कहनेमें दूषण दिया
१०० १७०-१७१ १०१ | १७१-१७२
१०२ | १७२-७३ १०३-१०४ | १७३-१७४
१०५-१०६
१७५-७८
१०९-११२
१७९-८१
११३-११५ ।
१८२-८३
११६–१२५ | १२६-१३१ |
१८४–९० १९०-९६
संख्यमती, पुरुष और प्रकृति को अपरिणामी कहते हैं उसका
निषेध कर पुरुष और पुद्गलको परिणामी कहा है ज्ञानसे ज्ञानभाव और अज्ञानसे अज्ञानभाव ही उत्पन्न होता है अज्ञानी जीव द्रव्यकर्म बंधनेका निमित्तरूप अज्ञानादि भावों का हेतु होता है पुद्गलका परिणाम तो जीवसे जुदा है और जीवका पुद्गलसे
१३२-१३६ |
१९७-१९९
जुदा है
१३७–१४०
२००-०२
२०२-०३
कर्म जीवसे बद्धस्पृष्ट है या अबद्धस्पृष्ट, ऐसे शिष्यके प्रश्नका
निश्चय व्यवहार दोनों नयों से उत्तर जो नयोंके पक्षसे रहित है वह कर्तृकर्मभावसे रहित समयसार शुद्ध आत्मा है ऐसा कह कर अधिकार पूर्ण
१४२-१४४ |
२०३-२१
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