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समयसार
प्रवचन भक्ति
सर्वाङ्गी ‘सन्मति' श्रुतधारा, गुरु गौतम ने मुख धारी;
थी करुणा हों भाव मरण बिन, तृषित तप्त भवि संसारी ।
हृदय शुद्ध मुनि कुन्दकुन्द ने वह संजीवन दया विचार; घट' प्रवचन',पंचास्ति ,समयमें ली लख शोषित अमृत धार ।।
कुन्द रचित पद सार्थक कर मुनि अमृत ने अमृत सींचा; ग्रन्थराज त्रय तुमने अद्भुत मृदुरस ब्रह्मभाव सींचा ।।
वीर वाक्य यह अहो नितारें साम्य सुधारस भर हृदयान्जुलि पियें मुमुक्षु वमें विषय विष गहरी-मूर्छा प्रबल-मोह दुस्तर-मल उतरे तज विभावहो स्वमुख परिणती ले निज लहरे यह है निश्चय ग्रन्थ भंग संयोगी भेदे अरु है प्रज्ञा शस्त्र उदय–मति संधी छेदे साधक साथी जगत सूर्य संदेश वीरका क्लान्त जगत विश्राम स्थान सतपथ सुधीरका
सुनें , समझलें, रुचे, जगत रुचिसे अलसावे पड़े बंधरस शिथिल हृदय ज्ञानी का पावे
कुन्दन पत्र बना लिखे, अक्षर रत्न तथापि कुन्द सूत्रके मूल्यका अहकन हो न कदापि
----- जयुगलक्त [ कोटा-राज]
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