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पूर्वरंग
परिचितपूर्वं, न कदाचिदप्यनुभूतपूर्वं च निर्मलविवेकालोकविविक्तं केवलमेकत्वम्। अत एकत्वस्य न सुलभत्वम्।
अत एवैतदुपदर्श्यते
तं यत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण ।
जदि दाज्ज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं ।। ५ ।। तमेकत्वविभक्तं दर्शयेऽहमात्मनः स्वविभवेन ।
यदि दर्शयेयं प्रमाणं स्खलेयं छलं न गृहीतव्यम् ।। ५ ।।
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जाननेवालोंकी संगति-सेवा न करनेसे, न तो पहले कभी सुना है, न परिचयमें आया है और न कभी अनुभवमें आया है, इसलिये भिन्न आत्माका एकत्व सुलभ नहीं है।
भावार्थ :- इस लोकमें सर्व जीव संसाररूपी चक्रपर चढ़कर पंच परावर्तन रूप भ्रमण करते हैं। वहाँ उन्हें मोहकर्मोदयरूपी पिशाच के द्वारा जोता जाता है, इसलिये वे विषयोंकी तृष्णारूपी दाहसे पीड़ित होते हैं; और उस दाहका इलाज ( उपाय ) इन्द्रियोंके रूपादि विषयोंको जानकर उनकी ओर दौड़ते हैं; तथा परस्पर भी विषयोंका ही उपदेश करते हैं। इसप्रकार काम तथा भोगकी कथा तो अनंतबार सुनी, परिचयमें प्राप्त की और उसीका अनुभव किया इसलिये वह सुलभ है । किन्तु सर्व परद्रव्योंसे भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप अपने आत्माकी कथाका ज्ञान अपनेको अपनेसे कभी नहीं हुआ, और जिन्हें वह ज्ञान हुआ है उनकी कभी सेवा नहीं की; इसलिये उसकी कथा न तो कभी सुनी, न परिचय किया और न अनुभव किया इसलिये उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं, दुर्लभ है ।।
अब आचार्य कहते हैं कि इसीलिये जीवोंको उस भिन्न आत्माका एकत्व बतलाते हैं :
दर्शाउँ एक विभक्तको आत्मातने निज विभवसे ।
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दर्शाउँ तो करना प्रमाण, न छल ग्रहो स्खलना बने ।। ५॥
गाथार्थ :- [ तम् ] उस [ एकत्वविभक्त ] एकत्वविभक्त आत्माको [अहं ] मैं [ आत्मनः ] आत्माके [ स्वविभवेन ] निज वैभव से [ दर्शये ] दिखाता हूँ; [ यदि ] यदि मैं [ दर्शयेयं ] दिखाऊँ तो [ प्रमाणं ] प्रमाण ( स्वीकार) करना, [ स्खलेयं ] और यदि कहीं चूक जाऊँ तो [ छलं ] छल [ न ] नहीं [ गृहीतव्यम् ] ग्रहण करना ।
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