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पूर्वरंग
१७
दर्शनज्ञानचारित्रवत्त्वेनास्याशुद्धत्वमिति चेत्ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं। ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो।।७।।
व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम्। नापि ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः।। ७ ।।
अशुद्धनयको सर्वथा असत्यार्थ न माना जाये; क्योंकि स्वाद्वाद प्रमाणसे शुद्धता और अशुद्धता- दोनों वस्तुके धर्म हैं और वस्तुधर्म वस्तुका सत्त्व है; अन्तरमात्र इतना ही है कि अशुद्धता परद्रव्यके संयोगसे होती है। अशुद्धनयको यहाँ हेय कहा है क्योंकि अशुद्धनयका विषय संसार है और संसारमें आत्मा क्लेश भोगता है; जब स्वयं परद्रव्यसे भिन्न होता है तब संसार छूटता है और क्लेश दूर होता है। इसप्रकार दुःख मिटानेके लिये शुद्धनयका उपदेश प्रधान है। अशुद्धनयको असत्यार्थ कहनेसे यह न समझना चाहिये कि आकाशके फूलकी भाँति वह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं है, ऐसा सर्वथा एकांत समझनेसे मिथ्यात्व होता है; इसलिये स्याद्वादकी शरण लेकर शुद्धनयका अवलंबन लेना चाहिये। स्वरूपकी प्राप्ति होनेके बाद शुद्धनयका भी आलंबन नहीं रहता। जो वस्तुस्वरूप है वह है-यह प्रमाणदृष्टि है। इसका फल वीतरागता है। इसप्रकार निश्चय करना योग्य है।
यहाँ, (ज्ञायकभाव) प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं है ऐसा कहा है। वह गुणस्थानोंकी परिपाटीमें छठे गुणस्थान तक प्रमत्त और सातवेंसे लेकर अप्रमत्त कहलाता है। किन्तु यह सब गुणस्थान अशुद्धनयकी कथनीमें है; शुद्धनयसे तो आत्मा ज्ञायक ही है।
__ अब प्रश्न यह होता है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्रको आत्माका धर्म कहा गया है, किन्तु यह तो तीन भेद हुए; और इन भेदरूप भावोंसे आत्माको अशुद्धता आती है ? इसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते हैं :
चारित्र, दर्शन, ज्ञान भी, व्यवहार कहता ज्ञानीके। चारित्र नहिं, दर्शन नहीं, नहिं ज्ञान, ज्ञायक शुद्ध है।।७।।
गाथार्थ :- [ज्ञानिनः] ज्ञानीके [चरित्रं दर्शनं ज्ञानम् ] चारित्र, दर्शन, ज्ञान-यह तीन भाव [ व्यवहारेण ] व्यवहारसे [ उपदिश्यते] कहे जाते हैं; निश्चयसे [ज्ञानं अपि न ] ज्ञान भी नहीं है, [ चरित्रं न] चारित्र भी नहीं है, और [ दर्शनं न] दर्शन भी नहीं है; ज्ञानी तो एक [ ज्ञायकः शुद्धः ] शुद्ध ज्ञायक ही है।
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