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समयसार
२०
सति यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानबहिष्कृतत्वान्न किंचिदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानिमेषोन्मेषितचक्षुः प्रेक्षत एव, यदा तु स एव व्यवहारपरमार्थपथप्रस्थापितसम्यग्बोधमहारथरथिनान्येन तेनैव वा व्यवहारपथमास्थाय दर्शनज्ञानचारित्राण्यततीत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमन्दानन्दान्तःसुन्दरबन्धुरबोधतरङ्गस्तत्प्रतिपद्यत एव। एवं म्लेच्छस्थानीयत्वाज्जगतो व्यवहारनयोऽपि म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयः। अथ च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद्व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः।
कथं व्यवहारस्य प्रतिपादकत्वमिति चेत्जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्ध। तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा।।९।। जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा। णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा।। १० ।। जुम्म।।
शब्दके अर्थ का ज्ञान न होने से कुछ भी न समझकर मेंढेकी भाँति आंखें फाडकर टकटकी लगाकर देखते रहते हैं, किन्तु जब व्यवहार-परमार्थ मार्ग पर सम्यग्ज्ञानरूपी महारथको चलानेवाले सारथीकी भाँति अन्य कोई आचार्य अथवा 'आत्मा' शब्दको कहनेवाला स्वयं ही व्यवहारमार्गमें रहता हुआ आत्मा शब्दका यह अर्थ बतलाता है कि-" दर्शन-ज्ञान-चारित्रको जो सदा प्राप्त हो वह आत्मा है” तब तत्काल ही उत्पन्न होनेवाले अत्यंत आनंदसे जिसके हृदयमें सुंदर बोधतरंगें (ज्ञानतरंगें) उछलने लगती हैं ऐसा वह व्यवहारीजन उस “आत्मा" शब्दके अर्थको अच्छी तरह समझ लेता है। इसप्रकार जगत तो म्लेच्छके स्थान पर होनेसे, और व्यवहारनय भी म्लेच्छभाषाके स्थान पर होनेसे परमार्थका प्रतिपादित (कहनेवाला) है इसलिये, व्यवहारनय स्थापित करनेयोग्य है; किन्तु ब्राह्मणको म्लेच्छ नहीं हो जाना चाहिये-इस वचनसे वह ( व्यवहारनय ) अनुसरण करने योग्य नहीं है।
भावार्थ :- लोग शुद्धनयको नहीं जानते, क्योंकि शुद्धनयका विषय अभेद एकरूप वस्तु है; किन्तु वे अशुद्धनयको ही जानते हैं क्योंकि उसका विषय भेदरूप अनेकप्रकार है; इसलिये वे व्यवहारके द्वारा ही परमार्थको समझ सकते हैं। अतः व्यवहारनयको परमार्थका कहनेवाला जानकर उसका उपदेश किया जाता है। इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि यहाँ व्यवहारका आलंबन कराते हैं, प्रत्युत व्यवहारका आलंबन छुड़ाकर परमार्थमें पहुँचाते हैं,- यह समझना चाहिये।
अब, प्रश्न यह होता है कि व्यवहारनय परमार्थका प्रतिपादक कैसे है ? इसके उद्धर-स्वरूप गाथासूत्र कहते हैं :
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