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पूर्वरंग
तर्हि परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत्
जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदुं । ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ।। ८ ।। यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम् । तथा व्यवहारेण विना परमार्थोपदेशनमशक्यम्।। ८ ।।
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यथा खलु म्लेच्छ: स्वस्तीत्यभिहिते सति तथाविधवाच्यवाचकसम्बन्धावबोधबहिष्कृतत्वान्न किञ्चिदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानिमेषोन्मेषितचक्षुः प्रेक्षत एव यदा तु स एव तदेतद्भाषासम्बन्धैकार्थज्ञेनान्येन तेनैव वा म्लेच्छभाषां समुदाय स्वस्तिपदस्याविनाशो भवतो भवत्वित्यभिधेयं प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमन्दानन्दमयाश्रुझलज्झलल्लोचनपात्रस्तत्प्रतिपद्यत एव; तथा किल लोकोऽप्यात्मेत्यभिहिते
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अब यहाँ पुनः प्रश्न उठा है कि यदि ऐसा है तो एक परमार्थका ही उपदेश देना चाहिये; व्यवहार किसलिये कहा जाता है ? इसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते है :
भाषा अनार्य बिना न, समझाना ज्यु शक्य अनार्य को । व्यवहार बिन परमार्थका, उपदेश होय अशक्य यों ।। ८ ।।
गाथार्थ :- [ यथा ] जैसे [अनार्यः] अनार्य (म्लेच्छ) जनको [ अनार्यभाषां विना तु] अनार्यभाषाके बिना [ ग्राहयितुम् ] किसी भी वस्तुका स्वरूप ग्रहण करनेके लिये [न अपि शक्यः ] कोई समर्थ नहीं है [ तथा ] उसीप्रकार [ व्यवहारेण विना ] व्यवहारके बिना [ परमार्थोपदेशनम् ] परमार्थका उपदेश देना [ अशक्यम् ] अशक्य है।
टीका :- जैसे किसी म्लेच्छसे यदि कोई ब्राह्मण ' स्वस्ति' ऐसा शब्द कहे तो वह म्लेच्छ उस शब्दके वाच्यवाचक संबंधको न जाननेसे कुछ भी न समझकर उस ब्राह्मण की ओर मेंढेकी भाँति आंखें फाड़कर टकटकी लगाकर देखता ही रहता है, किन्तु जब ब्राह्मणकी और म्लेच्छकी भाषाका - दोनोंका अर्थ जाननेवाला कोई दूसरा पुरुष या वही ब्राह्मण म्लेच्छभाषा बोलकर उसे समझता है कि 'स्वस्ति' शब्दका अर्थ यह है कि “तेरा अविनाशी कल्याण हो", तब तत्काल ही उत्पन्न होनेवाले अत्यंत आनंदमय अश्रुओंसे जिसके नेत्र भर जाते हैं ऐसा वह म्लेच्छ इस 'स्वस्ति' शब्दके अर्थको समझ जाता है; इसीप्रकार व्यवहारीजन भी 'आत्मा' शब्दके कहनेपर 'आत्मा'
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