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पूर्वरंग
कोऽसौ शुद्ध आत्मेति चित्
ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो। एवं भणंति सद्धं णादो जो सो दु सो चेव ।।६।।
नापि भवत्यप्रमत्तो न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भावः।। एवं भणन्ति शुद्धं ज्ञातो यः स तु स चेव।। ६ ।।
यो हि नाम स्वतःसिद्धत्वेनानादिरनन्तो नित्योद्योतो विशदज्योतिर्ज्ञायक एको भावः स संसारावस्थायामनादिबन्धपर्यायनिरूपणया क्षीरोदकवत्कर्मपुद्गलैः सममेकत्वेऽपि द्रव्यस्वभावनिरूपणया दुरन्तकषायचक्रोदयवैचित्र्यवशेन प्रवर्तमानानां पुण्यपापनिर्वर्तका-नामुपात्तवैश्वरूप्याणां शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिणमनात्प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवति। एष एवाशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते।
स्वरूपका निश्चय करो।।।
अब यहाँ यह प्रश्न उठता है कि ऐसा शुद्ध आत्मा कौन है जिसका स्वरूप जानना चाहिये ? इसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते है :
नहिं अप्रमत्त प्रमत्त नहीं, जो एक ज्ञायक भाव है। इस रीति शुद्ध कहाय अरु, जो ज्ञात वो तो वो हि है।।६।।
गाथार्थ :- [ यः तु] जो [ ज्ञायक: भावः ] ज्ञायक भाव है वह [अप्रमत्तः अपि ] अप्रमत्त भी [ न भवति ] नहीं और [ न प्रमत्तः ] प्रमत्त भी नहीं है,- [ एवं ] इस प्रकार [ शुद्धं ] इसे शुद्ध [ भणन्ति ] कहते हैं; [ च यः] और जो [ ज्ञात: ] ज्ञायकरूपसे ज्ञात हुआ [ सः तु] वह तो [ सः एव ] वही है, अन्य कोई नहीं।।
टीका :- जो स्वयं अपनेसे ही सिद्ध होनेसे (किसीसे उत्पन्न हुआ न होनेसे), अनादि सत्तारूप है, कभी विनाशको प्राप्त न होनेसे अनंत है, नित्यउद्योतरूप होनेसे क्षणिक नहीं है और स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है, ऐसा जो ज्ञायक एक 'भाव' है, वह संसारकी अवस्थामें अनादि बंधपर्यायकी निरूपणासे (अपेक्षासे) क्षीरनीरकी भाँति कर्मपुद्गलोंके साथ एकरूप होनेपर भी, द्रव्यके स्वभावकी अपेक्षासे देखा जाये तो दुरंत कषायचक्रके उदयकी (-कषायसमूहके अपार उदयोंकी) विचित्रताके वशसे प्रवर्तमान पुण्य-पापको उत्पन्न करनेवाले समस्त अनेकरूप शुभअशुभ भाव, उनके स्वभावरूप परिणमित नहीं होता (ज्ञायकभावसे जड़भावरूप नहीं होता) इसलिये वह प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वही समस्त अन्यद्रव्योंके भावोंसे भिन्नरूपसे उपासित होता हुआ 'शुद्ध' कहलाता है।
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