Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 27
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २७ विषय गाथा | पृष्ठ बौद्धमति ऐसा मानते हैं कि कर्मको करनेवाला दूसरा है और भोगने वाला दूसरा है उसका युक्तिपूर्वक निषेध ३४५-४८ | ४७१-७५ कतृ कर्मका भेद-अभेद जैसा है उसी तरह नय विभाग द्वारा दृष्टांत पूर्वक कथन ३४९-५५ | ४७६-८२ | निश्चयव्यवहारके कथन को, खड़िया के दृष्टांतसे दस गाथाओंमें स्पष्ट करते हैं ३५६-६५ | ४८२-९६ 'ज्ञान और ज्ञेय सर्वथा भिन्न हैं' ऐसा जानने के कारण सम्यग्दृष्टि को विषयों के प्रति रागद्वेष नहीं होता, वे मात्र अज्ञान दशा में प्रर्वतमान जीव के परिणाम है ३६६-७१ | ४९७ ५०१ अन्य द्रव्यका अनयद्रव्य कुछ नहीं कर सकता ऐसा कथन ३७२ ५०२-०५ स्पर्श आदि पुद्गलके गुण हैं वे आत्मा को कुछ ऐसा नहीं कहते कि | हमको ग्रहण करो और आत्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उनमें नहीं जाता है परन्तु अज्ञानी जीव उनसे वृथा राग-द्वेष करता है ३७३-८२ | ५०६-१३ प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना का स्वरूप ३८३-८६ | ५१३-१५ जो कर्म और कर्मफलको अनुभवता अपने को उस रूप करता है वह नवीन कर्मको बाँधता है। [ यहाँ पर टीकाकार आचार्यदेव कृत -कारित-अनुमोदनासे मन-वचन-कायसे अतीत, वर्तमान और अनागत कर्मके त्यागको उनचास उनचास भंग द्वारा कथन करके कर्मचेतना के त्यागका कथन करके कर्मफलचेतनाके ३८७-८९ । ५१६-४४ त्यागका विधान दिखाते हैं | ज्ञानको समस्त अन्य द्रव्योंसे भिन्न बतलाते हैं ३९०-४०४ | ५४६-५४ आत्मा अमूर्तिक है इसलिये इसके पुदगलमयी देह नहीं है ४०५-०७] ५५५-५६ द्रव्यलिंग देहमयी है इसलिये द्रव्यलिंग द्रव्यलिंग आत्माके मोक्ष का कारण नहीं है, दर्शनज्ञानचारित्र ही मोक्षमार्ग है ऐसा कथन ४०८-१० | ५५७-५९ मोक्षका अर्थी दर्शनज्ञानचारित्र स्वरूप मोक्षमार्गमें ही आतमाको प्रवर्तावे ऐसा उपदेश किया है ४११-४१२ | ५५९-६३ जो द्रव्यलिंग में ही ममत्व करते हैं वे समयसार को नहीं जानते हैं। ४१३ | ५६३-६५ व्यवहारनय तो मुनि श्रावक के लिंगको मोक्षमार्ग कहता है और निश्चयनय किसी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता ऐसा कथन ४१४ | ५६५-६७ इस ग्रन्थको पूर्ण करते हुए उसके अभ्यास वगैरहका फल कहते हैं ४१५ | ५६७-६९ इस ग्रन्थमें अनन्त धर्म वाले आत्माको ज्ञानमात्र कहनेमें स्याद्वादसे विरोध कैसे नहीं आता है ? इसको बताते हुए तथा एक ही ज्ञान में उपायभाव और उपेयभाव दोनों किस तरह बनते हैं ? यह बताते हुए टीकाकार आचार्यदेव इस सर्वविशुद्व ज्ञान अधिकार के अन्तमें परिशिष्टरूप स्याद्वाद और उपाय-उपेयभाव में थोड़ा ५७० कहने की प्रतिज्ञा करते हैं एक ज्ञान में ही तत्, अतत्, एक, अनेक, सत्, असत्, नित्य, अनित्य इन भावोंके चौदह भेद कर उनके १४ काव्य कहते हैं Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com ५७१

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