Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 26
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २६ ८. मोक्ष अधिकार ४०६ विषय गाथा मोक्षका स्वरूप कर्मबंधसे छूटना है जो जीव बन्धका तो छेद नहीं करता है परन्तु मात्र बन्धके स्वरूपको जानकर ही सन्तुष्ट होता है वह मोक्ष नहीं पाता है। २८८-९० | ४०७-०८ बन्धकी चिन्ता करनेपर भी बन्ध नहीं छूटता है २९१ ४०९ बन्ध छेदने से ही मोक्ष होता है | २९२-९३ | ४१०-११ बन्धका छेद किससे करना ऐसे प्रश्न का उत्तर यह है कि कर्मबंध के छेदनेको प्रज्ञा शस्त्र ही कारण है २९४ | ४११-१४ प्रज्ञारूप कारणसे आत्मा ओर बंध दोनोंको जुदे जुदे कर प्रज्ञासे ही आत्मा को ग्रहण करना, बन्ध को छोड़ना २९५-९६ | ४१५-१६ आत्माको प्रज्ञाके द्वारा कैसे ग्रहण करना, उस सम्बन्धी कथन २९७-९९ | ४१७-२२ आत्माके सिवाय अन्य भावका तयाग करना, कौन ज्ञानी परभाव जानकर ग्रहण करेगा? अर्थात कोई नहीं करेगा ३०० | ४२२-२३ जो परद्रव्यको ग्रहण करता है वह अपराधी है, बन्धनमें पड़ता है जो अपराध नहीं करता, वह बन्धन में भी नहीं पड़ता ३०१-३ | ४२४-२५ अपराध का स्वरूप ३०४-०५ | ४२६-२८ शुद्ध आत्माके ग्रहणसे मोक्ष कहा; परन्तु आत्मातो प्रतिक्रमण आदि द्वारा भी दोषोंसे छूट जाता है; तो पीछे शुद्ध आत्माके ग्रहण से क्या लाभ है ? ऐसे शिष्य के प्रश्न का उत्तर यह दिया है कि प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणसे रहित अप्रतिक्रमणादिस्वरूप तीसरी अवस्था शद्ध आत्माका ही ग्रहण है. इसीसे आत्मा निर्दोष होता है | ३०६-०७ | ४२९-३४ ९. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार विषय आत्माके अकर्तापना दृष्टांतपूर्वक कहते हैं कर्तापना जीव अज्ञानसे मानता है, उस अज्ञानकी सामर्थ्य दिखाते ४३५ गाथा | पृष्ठ ३०८ ११ | ४३६-३८ ३१२-१३ | ४३९-४० ३१४-१५ | ४४१-४२ जब तक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे उपजना विनशना न छोड़े तब तक कर्ता होता है कर्तृत्वपना भोक्तृपना भी आत्मा का स्वभाव नहीं है, अज्ञानसे ही भोक्ता है ऐसा कथन | ज्ञानी कर्मफलका भोक्ता नहीं है ज्ञानी कर्ता-भोक्ता नहीं है उसका दृष्टांत पूर्वक कथन जो आत्माको कर्ता मानते हैं उनके मोक्ष नहीं है ऐसा कथन अज्ञानी अपने भावकर्मका कर्ता है ऐसा युक्ति पूर्वक कथन आत्माके कर्तापना और अकर्तापना जिस तरह है उस तरह स्याद्वाद द्वारा तेरह गाथाओंमें सिद्ध करते हैं ३१३-१७ | ४४२-४५ ३१८-१९ | ४४५-४७ | ३२० | ४४७-४९ | ३२१-२७ | ४४९-५५ ३२८-३१ | ४५५-५९ | ३३२-४४ | ४५९-७० Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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