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समयसार
(अनुष्टुभ् ) अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः। अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम् ।।२।।
शब्द अर्थ अरु ज्ञान समय त्रय आगम गाये मत सिद्धांत रु काल भेदत्रय नाम बताये। इनहिं आदि शुभ अर्थसमयवचके सुनिये बहु अर्थसमयमें जीव नाम है सार सुनहु सहु। तातें जु सार बिन कर्ममल शुद्ध जीव शुध नय कहै। इस ग्रंथ माहिं कथनी सबै समयसार बधजन गहै।। ४।। नामादिक छह ग्रन्थमुख, तामें मंगल सार। विघनहरन नास्तिक हरन, शिष्टाचार उचार।। ५।। समयसार जिनराज है, स्याद्वाद जिनवैन।
मुद्रा जिन निरग्रंथता, नमूं करै सब चैन।। ६।। प्रथम, संस्कृत टीकाकार श्रीमद् अमृतचंद्रआचार्यदेव ग्रंथके प्रारम्भमें मंगल के लिये इष्टदेवको नमस्कार करते हैं :
श्लोकार्थ :- [ नमः समयसाराय ] 'समय' अर्थात् जीव नामक पदार्थ , उसमें सार जो द्रव्यकर्म , भावकर्म, नोकर्म रहित शुद्ध आत्मा-उसे मेरा नमस्कार हो। वह कैसा है ? [ भावाय ] शुद्ध सत्तास्वरूप वस्तु है। इस विशेषणपदसे सर्वथा अभाववादी नास्तिकोंका मत खंडित हो गया। और वह कैसा है ? [ चित्स्वभावाय] जिसका स्वभाव चेतनागणरूप है। इस विशेषणसे गण-गणीका सर्वथा भेद मानने वाले नैयायिकोंका निषेध हो गया। और वह कैसा है ? [ स्वानुभूत्या चकासते] अपनी ही अनुभवनरूप क्रियासे प्रकाश करता है, अर्थात् अपनेको अपनेसे ही जानता है-प्रगट करता है। इस विशेषणसे, आत्माको तथा ज्ञानको सर्वथा परोक्ष ही माननेवाले जैमिनीय-भट्ट-प्रभाकरके भेदवाले मीमांसकोंके मतका खण्डन हो गया। तथा ज्ञान अन्य ज्ञानसे जाना जा सकता है-स्वयं अपनेको नहीं जानता, ऐसा माननेवाले नैयायिकोंका भी प्रतिषेध हो गया। और वह कैसा है ? [ सर्वभावान्तरच्छिदे] स्वतः अन्य सर्व जीवाजीव, चराचर पदार्थोंको सर्व क्षेत्र काल सम्बन्धी सर्व विशेषणोंके साथ एक ही समय में जाननेवाला है। इस विशेषणसे, सर्वज्ञका अभाव मानने वाले मीमांसक आदि का निराकरण हो गया। इसप्रकारके विशेषणों (गुणों) से शुद्ध आत्माको ही ईष्टदेव सिद्ध करके ( उसे ) नमस्कार किया है।
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