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समयसार
२०
| विषय
गाथा
| पृष्ठ शुद्धनय सत्यार्थ और व्यवहारनय असत्यार्थ कहा गया है
११ | २२-२३ जो स्वरूपसे शुद्ध परमभावको प्राप्त हो गये उनको तो शुद्धनय ही प्रयोजनवान है, और जो साधक अवस्थामें है उनके व्यवहारनय
२४-२८ भी प्रयोजनवान है ऐसा कथन जीवादितत्त्वोंको शुद्धनयसे जानना सो सम्यक्त्व है ऐसा कथन
१३ | २९-३४ शुद्धनयका विषयभूत आत्मा बद्धस्पृष्ट, अन्य, अनियत, विशेष और संयुक्त इन पाँच भावोंसे रहित होने सम्बंधी कथन
१४ | ३५-४० शुद्धनयके विषयभूत आत्माको जानना सो सम्यग्ज्ञान है ऐसा कथन
१५ | ४१-४३ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप आत्मा ही साधुके सेवन करने योग्य है, उसका दृष्टांत सहित कथन
१६-१८ | ४९-५१ शुद्धनयके विषयभूत आत्माको जबतक न जाने तबतक वे जीव अज्ञानी हैं
५०-५१ | अप्रतिबुद्ध [ अज्ञानी ] को कैसे पहिचाना जा सकता है ?
२०-२२| ५२-५४ अज्ञानीको समझाने की रीति
२३-२५ | ५५-५८ अज्ञानीने जीव-देहको एक देखकर तीर्थंकरकी स्तुतिका प्रश्न | कियाउसका उत्तर
२६-२७ | ५८-५९ इस उत्तरमें जीव देहकी भिन्नताका दृश्य तथा जितेन्द्रिय ,जितमोह, क्षीणमोह
२८-३३ | ६०
६९ चारित्रमें जो प्रत्याख्यान कहने में आता है वह क्या है? ऐसे शिष्य का उत्तर प्राप्त होता है कि प्रत्याख्यान ज्ञान ही है
३४-३५ / ६९-७२ अनुभूतिद्वारा परभावका भेदज्ञान तथा ज्ञेयभावके भेदज्ञान के प्रकार | ३६-३७ | ७२-७६ दर्शनज्ञानचारित्र स्वरूप परिणत हुए आत्माका स्वरूप कह कर रंगभूमिका स्थल [३८ गाथाओंमें ] पूर्ण
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