Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 12
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार १२ भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव विक्रम संवत् के प्रारम्भमें हो गये हैं। दिगम्बर जैन परम्परा में भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव का स्थान सर्वोत्कृष्ट है। मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोस्तु मंगलं ।। प्रत्येक दिगम्बर जैन, इस श्लोक को, शास्त्राध्ययन प्रारम्भ करते समय मंगलाचरणरूप बोलते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि सर्वज्ञ भगवान् श्री महावीर स्वामी और गणधर भगवान श्री गौतम स्वामी के अनन्तर ही भगवान कुन्दकुन्दाचार्य का स्थान आता है। दिगम्बर जैन साधुगण स्वयंको कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परा का कहलाने में गौरव मानते हैं, भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव के शास्त्र साक्षात गणधर देवके वचनों जैसे ही प्रमाणभूत माने जाते हैं। उनके अनन्तर हुवे ग्रन्थकार आचार्य स्वयंके किसी कथन को सिद्ध करने के लिये कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्रों का प्रमाण देते हैं जिससे यह कथन निर्विवाद सिद्ध होता है। उनके पीछे के रचे हुवे ग्रन्थोंमें उनके शास्त्रोंमें अनेकानेक अवतरण लिये हुवे हैं। यथार्थतः भगवान कुन्दकुन्दाचार्यने स्वयंके परमागमोंमें तीर्थंकर देवोंके द्वारा प्ररूपित उत्तमोत्तम सिद्धांतोंका [ झालवी ] साध रखा है और मोक्षमार्गको टिका रखा है। वि० सं० ९९० में हुए देवसेनाचार्यवर अपने दर्शनसार नाम के ग्रन्थ में कहते हैं कि ---- जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ।[दर्शनसार] विदेहक्षेत्र के वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधर स्वामीके प्राप्त किये हुवे दिव्य ज्ञान के द्वारा श्री पद्मनंदिनाथने [श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने] बोध नहीं दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?त्त दूसरा एक उल्लेख देखिये, जिसमें कुन्दकुन्दाचार्यदेवको कलिकाल सर्वज्ञ कहा गया है, पद्मनंदि, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, ऐलाचार्य, गृध्रपिच्छाचार्य, इन पाँचों नामों से विराजित, चार अंगुली ऊपर आकाश में गमन करने की जिनको ऋद्धि थी, जिन्होंने पूर्व विदेह में जाकर श्री सीमंधर भगवान का वंदन किया था और जिनके पास से मिले हुवे श्रुतज्ञान के द्वारा जिन्होंने भारतवर्ष के भव्य जीवोंको प्रतिबोधित किया है ऐसे जो श्री जिनचंद्रसूरी भट्टारकके पट्टके आभरणरूप कलिकाल सर्वज्ञ [ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेव] उनके द्वारा रचित इस षटप्राभुत ग्रंथमें ०००००००० सूरीश्वर श्री श्रुतसागर द्वारा रचित मोक्षप्राभृत की टीका समाप्त हुई।क्त इसप्रकार षटप्राभृत की श्री श्रुतसागरसूरी कृत टीका के अन्त में लिखा हुआ है। भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेव की महत्ता बतलाने वाले ऐसे अनेकानेक उल्लेख जैन साहित्य में मिलते हैं। *शिलालेख भी अनेक हैं। इसप्रकार यह निर्णोत है कि सनातन जैन [दिगम्बर ] संप्रदाय में कलिकाल सर्वज्ञ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य का अथान अजोड़ है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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