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सम्पादकीय संपर्क में रहनेवाले लोगों ने पूज्य वर्गीजी महाराज से जब इस बात का आग्रह किया कि महाराज! आप समयसार के अधिकारी विद्वान् हैं, अधिकारी इसलिये कि आप न केवल हिन्दी टीकाओं के आधार से इसके ज्ञाता हुए हैं किन्तु प्राकृत और संस्कृत भाषा में विरचित मूलग्रन्थ तथा उसकी संस्कृत-टीकाओं के एक-एक पद का विश्लेषणकर उसके ज्ञाता हुए हैं, साथ ही आपकी प्रवचन-शैली भी आकर्षक एवं उच्चकोटि की है, जिससे साधारण-से-साधारण श्रोता भी गहन तत्त्व को सरलता से हृदयंगम कर लेता है। अत: आप के द्वारा इसकी टीका लिखी जावें-इस पर प्रवचन किये जावें, जिससे भविष्य में भी जनता लाभान्वित होती रहे। तब लोगों की प्रर्थाना सुनकर वे सहजभाव से यह कहकर टाल देते थे कि 'भैया मिश्री के चखने में ही आनन्द है उसके गुणवर्णन में नहीं।' फिर भी इस ओर उन्होंने ध्यान दिया और अपनी दिव्य लेखनी से समयसार की टीका लिखकर अपनी स्वाध्यायमञ्जूषा में रख ली।
जब जबलपुर में महाराजश्री का चातुर्मास हो रहा था, तब हमारे एक मित्र ने पत्र लिखा कि पूज्य वर्णीजी महाराज ने अपनी आत्मकथा और समयसार की टीका लिखकर पूर्ण कर ली है, इसे प्राप्त करने का प्रयत्न करो। प्रयत्न करने पर भी ये अमूल्य रत्न उन्होंने प्रदान नहीं किये। प्रत्येक कार्य समय आने पर ही सिद्ध होता है। जबलपुर से सागर की ओर विहार करते हुए आप मलहरा आ गये थे। उसी वर्ष सागर में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् की ओर से द्वितीय शिक्षण शिविर का आयोजन हो रहा था। इसका निमन्त्रण देने के लिए मैं स्वयं मलहरा गया था। मध्याह्न की सामायिक के बाद उन्होंने आत्मकथा का वह प्रकरण उपस्थित जनता के समक्ष स्वयं सुनाया, जिसमें उन्होंने अपनी धर्ममाता पूज्या चिरोंजाबाईजी के जीवन पर प्रकाश डाला था। उसे सुनकर सबका हृदय गद्गद हो गया। मैं आत्मकथा की उन कापियों को प्राप्त करने के लिए प्रयास करता रहा। फलत: वे उन्होंने मुझे दे दीं। शिक्षण शिविर के कार्यक्रम से निवृत्त होते ही मैं उनकी पाण्डुलिपि में संलग्न हो गया और ३-४ माह के भीतर उसका एक व्यवस्थित रूप सामने आ गया। 'मेरी जीवन-गाथा' के नाम से 'वर्णी ग्रन्थमाला वाराणसी के द्वारा उसका प्रकाशन हो गया। इस तरह एक रत्न तो सामने आ गया था। परन्तु दूसरा रत्न 'समयसार की टीका' को उन्होंने प्रकाश में नहीं आने दिया।
समाधिमरण के बाद जब उनकी स्वाध्याय-सामग्री देखी गई तब उसमें यह टीका प्राप्त हुई। इसके प्रकाशन के लिये श्रीनरेन्द्रकुमारजी एम० ए०, साहित्याचार्य ने, जो अब पी-एच० डी० भी हैं, बड़ा प्रयत्न किया। ला० फिरोजीलालजी दिल्ली को प्रेरित करके उनके आर्थिक सहकार से इसके समस्त पृष्ठों को टाईप कराकर
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