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सम्पादकीय
श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी महाराज, जिन्होंने ईसरी में अन्तिम समय दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण कर श्री १०८ गणेशकीर्ति महाराज नाम से भाद्रपद कृष्ण ११ वि० सं २०१८ को स्वर्गारोहण किया था, समयसार के माने हुए विद्वान् और कुशल प्रवक्ता थे। वे न्याय के आचार्य थे और संस्कृत भाषा पर पूर्ण अधिकार रखते थे। कुन्दकुन्दस्वामी के द्वारा विरचित 'समयसार' आत्मतत्त्व का वर्णन करनेवाला सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। श्रीअमृतचन्द्रसूरि और जयसेनाचार्य ने उसपर संस्कृत टीकाएँ लिखकर उसके गम्भीर भाव को सरलता से समझाकर जनसाधारण का बहुत उपकार किया है। यह समयसार वर्णीजी महाराज को अत्यन्त प्रिय था । जीवन के अन्तिम वर्षों में तो वे 'सर्वं त्यज, एकं भज' के सिद्धान्तानुसार अन्य ग्रन्थों से अपना उपयोग हटाकर एक समयसार पर ही अपना उपयोग केन्द्रित करने लगे थे। उन्हें अमृतचन्द्रसूरि द्वारा विरचित आत्मख्याति सहित समयसार कण्ठस्थ था । उनके मुखारबिन्द से समयसार का प्रवचन सुनते समय श्रोता को जो आनन्द प्राप्त होता था उसका वर्णन वही कर सकता है जिसने कि उस प्रवचन को मनोयोगपूर्वक साक्षात् सुना है । समयसार का संस्कार उनके हृदय में इतना अधिक आरूढ हो गया था कि वे स्वप्न में भी इसका प्रवचन करते थे । ईसरी में उनके समीप रहनेवाले लोगों के मुख से सुना है कि पूज्य वर्णीजी स्वप्न में भी अमृतचन्द्रसूरि की आत्मख्याति के साथ समयसार की कितनी ही गाथाएँ अविकल बोलते रहते थे। उनकी यह क्रिया स्वप्न में जब कभी २०-२५ मिनिट तक अविरल चलती रहती थी।
इस समय समयसार के स्वाध्याय में पर्याप्त वृद्धि हो रही है। जो 'समयसार' शब्द का अर्थ नहीं समझते हैं, निश्चय और व्यवहार नय का स्वरूप नहीं जानते हैं वे भी हाथ में समयसार लिये देखे जाते हैं । कहना चाहिये कि यह समयसार का युग है । कुन्दकुन्द महाराज के हृदय - हिमालय से जो अध्यात्म की मन्दाकिनी प्रवाहित हुई, उसकी सरस- शीतल धारा में अवगाहनकर संसार - भ्रमण से संतप्त मानव परमशान्तिका अनुभव करें, यह बड़ी प्रसन्नता की बात है । समयसार ने अनगिनत जीवों का कल्याण किया है। उसका स्वाध्याय कर अन्य अनेक धर्मी लोग शाश्वत कल्याणकारी दिगम्बर धर्म में दीक्षित हुए हैं । कविवर बनारसीदासजी, शतावधानी रायचन्द्रजी और सोनगढ़ के श्रीकानजी स्वामी इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं ।
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