Book Title: Samaysar Vaibhav
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Jain Dharm Prakashan Karyalaya

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Page 8
________________ आत्म-निवेदन भौतिक विज्ञान के नित नये आविष्कारो से चमत्कृत इस युग में अधिकांश जनों को अध्यात्म की चर्चा कुछ अजीब सी प्रतीत होती है । मोहवशात् प्राणी अनादि से ही अपने मुख स्वरूप को भूला हुअा प्राय जड पदार्थों के भोगोपभोग द्वारा ही स्वय व दूसरो को सुख शाति प्राप्त करने कराने की नाना चेष्टानों में निमग्न रहा है और उसकी प्राज भी यही दशा है । यद्यपि जिन जिन वस्तुमो के भोगापभोग में उसने भ्रम व सुख की कल्पना की होती है, उन्हें प्राप्त करने और भोगने मे वह अनेक बार सफलताएँ प्राप्त कर चुका है, किन्तु इससे उसकी वास्तविक सुखी बनने की प्रातरिक अभिलाषा कभी भी पूर्ण नहीं हुई, प्रत्युत ज्यो ज्यो उन्हे भोगा और पर वस्तुप्रो से नाता जोडा त्यों त्यो इसकी नित नई इच्छाए दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती ही चली गई । फलत. पूर्वापेक्षा अपने को वह और भी दुखी एवं हीन सा अनुभव करता हुप्रा भी दुर्भाग्यवश अपने मति-भ्रम को मृग मरीचिका के समान अब तक भी उन्मलन करने मे समर्थ नहीं हो सका । इस सबंध में जैन दर्शन विना किसी सम्प्रदाय पथ, जाति या वर्ग प्रादि तथा कथित भेद भाव के प्राणिमात्र के हित को दृष्टि मे रखकर सदा ही उच्च स्वर से घोषणा करता रहा है कि सुख शाति की खोज हम जड पदार्थों मे न कर अपने मै करे, अपनी पोर देखे जाने और अपने में ही विश्राम करे; क्यो कि शाति और आनन्द प्रात्मा की अपनी वस्तु है अत. वह अपने में ही प्राप्त होगी । पर वस्तु में जब कि उसका अस्तित्व ही नहीं है तब वह वहाँकैसे प्राप्त हो सकेगी? क्या रेत से तेल प्राप्त हो सकता है ? आत्मा क्या है और क्या नही, अथवा वह है भी या नहीं? उसके सासारिक दुखो का मूल कारण क्या है, क्यो वह मसार परिभ्रमण कर दुखी हो रहा है और किस प्रकार दुखों से मुक्त होकर वास्तविक सुख शाति को प्राप्त कर सकता है ? आदि समस्याओं का समाधान करने के लिए ही समय समय वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा की वाणी के अनुसार जैनाचार्यों ने न केवल धोपदेश द्वारा ही जनता को सबोधित किया, प्रत्युत् प्रथों की रचना कर सदा के लिये उन उपदेशों को स्थायित्व भी प्रदान किया है।

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