Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 5
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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उनतीस )
ऋति ५०० पद्यों में समाप्त होती है जिसमें दोहा, चौपई, छन्द प्रमुख है । रचना की भाषा अधिक परिष्कत नहीं है। इसकी एक प्रति दि. जैन पंचायती मन्दिर भरतपुर में संग्रहीत है। ४२ सुवर्शन चरित माषा (४१८८)
___ सुदर्शन के जीवन पर महाकवि नयनन्दि ने अपभ्रंश भाषा में संवत् ११०० में महाकाव्य लिखा था। उसी को देख कर जैनन्द ने संवत् १६३३ में आगरा नगर में प्रस्तुत काव्य को पूर्ण किया था। जैनन्द ने मट्टारक यणःकीति क्षेमकीति तथा त्रिभुवनकीति का उल्लेख किया है। इसी तरह बादशाह अकबर एक अहांगीर के शासन का भी वर्णन किया है। काव्य यधपि अधिक बड़ा नहीं है किन्तु भाषा एवं वर्णन की दृष्टि से काव्य प्रन्हा है। काव्य की छन्द संस्था २०६ है। कान के पशुम दोहा, गौरव एवं सोरठा है। कवि ने निम्न छन्द लिख कर अपनी लघता प्रकट की है।
छंद भेद पद भेद हौं, तो कछु जाने नांहि । ताको कियो न खेद, कथा मई निज मसि बस ॥
४३ णिक प्रबन्ध (४१०५)
कल्याएकीति की एक रचना चारुदत्त चरित्र का परिचम हभ ग्रंथ सूची के चतुर्थ भाग में दे चुके हैं। यह कवि की दूसरी रचना है जिसकी उपलब्धि राजस्थान के फतेहपुर एवं दूदी के भण्डारों में हुई है। कवि भट्टारक सकलकीति की परम्परा में होने वाले भट्टारक देवकीर्ति के सिष्य थे । कवि ने इस प्रबन्ध को मागह प्रदेश के फोटनगर के श्रावक विमल के प्राग्रह से प्रादिनाथ मन्दिर में समाप्त की थी। रचना गीतात्मक है तथा प्रकाशन योग्य है।
कथा साहित्य ४४ अनिरुद्ध हरण-उषा हरण (४२२३)
यह रलभूषण की कृति है जो भट्टारक ज्ञानभूषण के शिष्य एवं भ० सुमतिकीति के परम प्रशंसक थे। अनिरुद्ध हरण की रचना भ० ज्ञानभूषण के उपदेश से ही हो सकी थी ऐसा ऋषि ने उल्लेख किया है । कवि ने कृति का रचनाकाल नहीं दिया है लेकिन भट्टारक शानभूषण के समय को देखते ही. हुए सह कृति संवत् १५६० से पूर्व की होनी चाहिए । मनिरुद्ध हरण की भाषा पर मराठी भाषा का प्रभाव है कवि ने रचना को "रचना
बहुरस कहु" महरस भरी कहा है । अनिरुद्ध प्रद्युम्न के पुत्र थे । कवि ने काव्य का नाम ऊषा हरण न देकर अनिरुदहरण दिया है। ४५ अनिरुद्ध हरण (४२२४)
भनिरुद्ध के जीवन पर यह दूसरा हिन्दी काव्य है जो ब्रह्म जयसागर की कृति है। ब्रह्म जयसागर मट्टारक महीचन्द्र के शिष्य थे । ये सिंहपुरा जाति के श्रावक थे तथा इसोर नगर में इन्होंने इस काव्य को संवत् १७३२ में समाप्त किया था। इसमें चार अधिकार है । इस रचना की भाषा राजस्थानी है तथा उस पर गुजराती झा प्रभाव है । रस्मभूषण सूरि के अनिरूद्ध हरण से यह रचना बष्टी है।