Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 3
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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(&) १. अचलकीर्त्ति
अचलकीर्ति १८ वीं शताब्दी के हिन्दी कवि थे। विषापहार स्तोत्र भाषा इनकी प्रसिद्ध रचना है जिसका समाज में अच्छा प्रचार है। अभी जयपुर के बधीचन्दजी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में कर्म - बत्तीसी नाम की एक और रचना प्राप्त हुई है जो संवत् १७७७ में पूर्ण हुई थी। इन्होंने कर्मबत्तीसी में पाया नगरी एवं बीर संध का उल्लेख किया है। इनकी एक रचना रविव्रतकथा देहली के भण्डार में संग्रहीत है ।
२. अजयराज
१८ शताब्दी के जैन साहित्य सेवियों में अजयराज पाटणी का नाम उल्लेखनीय है । ये खण्डेलवाल जाति में उत्पन्न हुये थे तथा पादणी इनका गोत्र था। पाटणीजी आमेर के रहने वाले तथा धार्मिक प्रकृति के प्राणी थे। ये हिन्दी एवं संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे । इन्होंने हिन्दी में कितनी ही रचनायें लिखी थी | अब तक छोटी और बडी २० रचनाओं का तो पता लग चुका है इनमें से आदि पुराण भाषा, नेमिनाथचरित्र, यशोधरचरित्र, चरखा चउपई, शिव रमरणी का विवाह, कात्तीसी
दि प्रमुख हैं। इन्होंने कितनी ही पूजायें भी लिखी हैं। इनके द्वारा लिखे हुये हिन्दी पद भी पर्याप्त संख्या में मिलते हैं । कवि ने हिन्दी में एक जिनजी की रसोई लिखी है जिसमें पढ़ रस व्यंजन का अच्छा वर्णन किया गया है।
अजयराज हिन्दी साहित्य के अच्छे विद्वान् थे । इनकी रचनाओं में काव्यत्व के दर्शन होते हैं । इन्होंने आदिपुराण को संवत् १७६७, में यशोधरचीपई को १७६२ में तथा नेमिनाथचरित्र को संवत् १७९३ समान किया था।
३. ब्रह्म अजित
मा अजित संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान थे । हनुमचरित में इनकी साहित्य निर्माण की कला स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ये गोलटगार वंश में उत्पन्न हुये थे। माता का नाम पीथा तथा पिता का नाम वीरसिंह था । भृगुकच्छपुर में नेमिनाथ के जिन मन्दिर में इनका मुख्य रूप से निवास था । भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति के प्रशिष्य एवं विद्यानन्द के शिष्य थे ।
हिन्दी में इन्होंने हंसा भावना नामक एक छोटी सी आध्यात्मिक रचना लिखी थी। रचना में ३७ पद्य हैं जिनमें संसार का स्वरूप तथा मानव का वास्तविक कर्त्तव्य क्या है, उसे क्या करना चाहिये तथा किसे छोड़ना चाहिये आदि पर प्रकाश डाला है। हंसा भावना अच्छी रचना है, तथा भाषा एवं शैली दोनों ही दृष्टियों से पढने योग्य है । कवि ने इसे अपने गुरु विद्यानन्द के उपदेश से बनायी थी ।