Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 11
________________ प्रकाशकीय प्रज्ञापना भगवान श्री महावीर ने साधक के लिए कहा है वंदणं नावकखेज्ज Jain Education International वंदना, अर्चना की अभिलाषा न रखे । यह आदर्श साधक का है। वह सदा निस्पृह, निरकांक्ष रहकर आत्म-साधना के पवित्र पथपर बढ़ता है । साधक के कर्तव्य के बाद जब शिष्य का कर्तव्य बताया गया तो वहाँ कहा गया जायगी जलणं नमसे नाथा हुई मत पयाभिसितं एवापरियं उवचिज्जा अनंतनागोजी वि संतो - जैसे अग्निदेवता की ज्योति सदा प्रज्ज्वलित रखने वाला ब्राह्मण विविध आहुतियाँ एवं मंत्रों द्वारा अग्नि का अभिषेक करता है, उसकी पूजा करता है इसी प्रकार शिष्य ( भले ही वह अनन्तज्ञान से सम्पन्न क्यों न हो ) आचार्य की विनयपूर्वक सेवा करे। विविध प्रकार से उनकी स्तुति, वन्दना - अभिनन्दना करें । भक्त जीवन में समर्पण, कृतज्ञता और विनम्रता का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है, शिष्य का गुरु के प्रति, का भगवान के प्रति, श्रावक का श्रमण के प्रति जितना उच्च और निष्ठापूर्ण समर्पण होगा, जीवन में उतनी ही अधिक शक्ति, शान्ति और तन्मयता की अनुभूति जगेगी। यही तन्मयता, एकतानता, आत्मा-परमात्मा का मिलन सूत्र है । अध्यात्मयोगी गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज का हम श्रावक समाज पर असीम उपकार है। उन्होंने न सिर्फ हमें साधना के सरल माध्यम से आत्म-बोध का मार्ग दिखाया है, अपितु उस 'वाचा अगोचर' परमानंद स्वरूप आत्म-देवता का साक्षात्कार कराने का अथक प्रयत्न भी किया है। वे स्वयं आत्म-द्रष्टा हैं, और निकट में आने वाले हर जिज्ञासु को वे आत्म-दर्शन की विधि व साधना समझाते हैं। आत्म-साक्षात्कार कराने वाला गुरु ही परम गुरु है, परमोपकारी है । आज के भौतिक चकाचौंध के युग में अध्यात्म और योग द्वारा परम शान्ति का मार्ग प्राप्त करना - मनुष्य का सबसे के 'सौभाग्य है, सबसे महान् उपलब्धि है । इस उपलब्धि के श्रेयोभागी गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज बड़ा निकट इसी कारण आज हजारों-हजार आत्म-जिज्ञासुओं की भीड़ रहती है कि उनके सान्निध्य में आध्यात्मिक शान्ति, मानसिक शक्ति प्राप्त होती है, जीवन का खोया हुआ विश्वास और टूटा हुआ मनोबल पुनः प्राप्त होता है, ऐसा अनेक जिज्ञासु व धद्धालुओं का अनुभव है। गुरुदेव श्री के प्रति समर्पण व श्रद्धा भाव रखने वाले भक्तों की बहुत समय से भावना थी कि किसी प्रसंग पर गुरुदेव श्री का अभिनन्दन कर हम अपनी श्रद्धा भावना की कुछ परितृप्ति करे । वि० सं० २०३२ सन् १९७५ के चातुर्मास में जब हम गुरुदेव श्री की जन्म जयन्ती मना रहे थे, तब स्व० श्री रिषभदास जी रांका ने गुरुदेव श्री की स्वर्ण जयंती के प्रसंग पर एक महत्त्वपूर्ण अभिनन्दन ग्रन्थ तैयार करने की प्रेरणा दी थी। डा. एस. वारलिंगे, डा. बतरा एवं श्री शंकाजी आदि की भावना थी कि गुरुदेव श्री के अभिनन्दन ग्रन्थ के माध्यम से अध्यात्म व योग विद्या की दुष्प्राप्य साहित्य सामग्री का विशेष प्रकाशन-सम्पादन किया जाय । गुरुदेव श्री के विद्वान अन्तेवासी साहित्यशिल्पी श्री देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री की भी यही भावना थी कि अभिनन्दन ग्रन्थ हो तो उच्चस्तर का हो, ऐसी सामग्री उसमें संग्रहीत की जाय कि पाठक युग-युग तक उसमें टटोलता रहे, खोजता रहे और पढ़ता रहे। एक वर्ष तक अभिनन्दन समारोह की रूपरेखा व योजना पर चिन्तन चलता रहा। सन् १९७६ के रायचूर चातुर्मास में यह चिन्तन निर्णय रूप में बदला, संपादक मण्डल, संयोजक समिति आदि का गठन हुआ। संयोजन का दायित्व रायचूर के लोकप्रिय नेता जसराजजी बोरा, उत्साही श्रावक 'श्रीमान पारसमलजी मुथा, ऋषभचन्द जी सुकाणी व मुझ पर रखा गया । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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