Book Title: Pratishtha Pujanjali
Author(s): Abhaykumar Shastri
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 11
________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि तिम निर्मोही रागादि रहित, निष्काम परम निर्दोष प्रभो।। निष्कर्म, निरामय, निष्कलंक, निर्ग्रन्थ सहज अक्षोभ अहो ।। मेरा भी ऐसा ही स्वरूप, अनुभूति धर्ममय वृष्टि हो ।।२।। इन्द्रादिक चरणों में नत हो, पर आप परम निरपेक्ष रहो। अक्षयवैभव अद्भुत प्रभुता, लखते ही चित्त आनन्दमय हो ।। हे परम पुरुष आदर्श रहो, उर में निष्काम सु भक्ति हो ।।३।। संसार प्रपंच महा दुखमय, मेरा मन अति ही घबराया। होकर निराश सबसे प्रभुवर, मैं चरण शरण में हूँ आया।। मम परिणति में भी स्वाश्रय से, रागादिक से निवृत्ति हो ।।४।। जगख्याति लाभ की चाह नहीं, हो प्रगट आत्मख्याति जिनवर। उपसर्गों की परवाह नहीं, आराधन हो सुखमय प्रभुवर ।। सब कर्म कलंक सहज विनशे, विभु निजानन्द में तृप्ति हो ।।५।। दर्शन-स्तुति नाथ तुम्हारे दर्शन से, निज दर्शन मैंने पाया। तुम जैसी प्रभुता निज में लख, चित मेरा हर्षाया ।।टेक।। तुम बिन जाने निज से च्युत हो, भव-भव में भटका हूँ। निज का वैभव निज में शाश्वत, अब मैं समझ सका है।। निज प्रभुता में मगन होऊँ, मैं भोगूं निज की माया। नाथ तुम्हारे दर्शन से, निज दर्शन मैंने पाया ।।१।। पर्यय में पामरता, तब भी द्रव्य सुखमयी राजे । लक्ष्य तनँ पर्यायों का, निजभाव लखू सुख काजे ।। पर्यायों में अटक-भटक कर, मैं बहु दुःख उठाया। नाथ तुम्हारे दर्शन से, निज दर्शन मैंने पाया ।।२।। पद्मासन थिर मुद्रा, स्थिरता का पाठ पढ़ाती। निजभाव लखे से सुख होता, नासादृष्टि सिखलाती ।। कर पर कर ने कर्तृत्व रहित, सुखमय शिवपंथ सुझाया। नाथ तुम्हारे दर्शन से, निज दर्शन मैंने पाया ।।३।17

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